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सोचः सुः सयम-धर्म में
सह ओ
नाग. हा नर हो .
देर
हो रहनेमि स्यम-धर्म : . थेर हो गया
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चारि , पालन , या, जित न जा . में : अनन्.
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विणियट्टी र तु : . शब्दार्थ----एवं पूर्वोक्त रोनि से संबुद्धा बुद्धिमा. दिया संतभागों के बारे जगन्न देवा , न ले पवियक्खणा पापकर्म सेडानेवाले पुरुष कर नाचण कर की भोरे युवा मो. से नियम॒ति अला, होते है जहा जैसे से वह पुरिसोत्तमो योनि वा भोगों से ....: निधि ऐसा मैं मेरी बुद्धि से नहीं कहता हूं, किन्तु
म म आ कथनानुम्मा का
----जेस प्रकार : षोत्तम हनेमि में अपनी आत्मा को वान्तभोगों से . ' कर संयम-धः। आप कर और दिवाणप८ को प्रा. कि- उसी प्रकार जो साधु विषयभोगों की ० - गा दुए ।
र का संया-धर्म यर करेंगे, तो उनको भी रहनेमि के समान पासपद प्राप्त रेगा।
का ---अपने भाई के. स्त्री के ऊपर विषयाभिलाषा से सरा" दृष्टि रखनेवल हान .. षोत्तम क्यों कहा?
। समाधान टीकाकार में करते हैं कि-कर्मों की विचित्रता से रहनेमि को याभिलाषा दुई ने दर पुरुषों के समान इच्छानुसार विषय भोग सेवन नहीं किया। प्रत्युत विभयाभिगा * गंक का रहीम ने अपनी आत्मा को मथम, धर्म में स्थिर की-इसीसे सूत्रकार ने राम को
कहता कि
चार्य अपने पुत्र-शिष्य नक को कहते हैं कि हे मनक! ऐसा में अपनी बुद्धि से नहीं थिंकर गणधर आदि के उपदेश से कहता हूँ। इति श्रामण्यपूर्वकमध्यरानं द्वितीयं समाप्तम्।
ତତ श्री दशवकालिक सूत्रम् / १२