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राजमति के उक्त वचनों से बोध पाकर रहनेमि ने भगवान् श्रीनेमिनाथस्वामी के पास दीक्षा ले ली। रहने के दीक्षित होने के बाद राजिमति ने भी भगवान् के पास दीक्षा ली। एक बार रहने द्वारिका नगरी से गोचरी लेकर भगवान् के पास जा रहा था, लेकिन रास्ते में बारिश का उपद्रव देख कर वह रेवताचल की किसी गुफा में बैठ गया जो रास्ते के नजदीक ही थी। भाग्यवश राजिमति उसी अवसर में भगवान् नेमिनाथ स्वामी को वन्दन कर वापिस आ रही थी, वह भी बारिश पड़ने के कारण उसी गुफा में आई, जहां की रहनेमि ठहरा हुआ था ।
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रास्ते मे बारिश से भीग जाने से साध्वी राजिमति ने अपने शरीर के सभी कपड़े गुफा सुखा दिये। रहनेमि राजिमति के अंग प्रत्यंगों को देखकर कामातुर हुआ और लज्जा को छोड़ राजमति से भोग करने की प्रार्थना करने लगा। राजिमति ने अपने अंगों को ढक कर शिक्षा देते हुए कहा कि
हं च भोगरायस्स, तं चऽसि अंधगविहिणो ।
मा कुले गंधणा होमो, संजमं निहुओ चर ॥ ८ ॥
शब्दार्थ - अहं च मैं भोगरायस्स उग्रसेन राजा की पुत्री हूं च और तं तुं अंधविहिणो समुद्रविजय राजा का पुत्र असि है कुले अपने कुलों में गंधण हम दोनों को गन्धन जाति के सर्प समान मा होमो नहीं होना चाहिये निहुओ चित्त को स्थिर करके संजमं चारित्र को चर आचरण कर ।
- भो रहनेमिन्! मैं राजा उग्रसेन की पुत्री हूं और तुम राजा समुद्रविजयजी के पुत्र हो । अपना विशाल और निष्कलंक कुल है । अतएव अपने को विषय भोग रूप वान्त रस का पान करके गन्धन जाति के सर्पों के समान नहीं होना चाहिये। इसलिये तुम अपने चित्त को स्थिर रखकर निर्दोष चारित्र का पालन करो।
जड़ तं काहिसि भावं, जा जा दिच्छसि नारिओ । वायाविद्ध व्व हडो, अट्ठिअप्पा भविस्ससि ॥ ९ ॥
शब्दार्थ — जइ यदि तं तुम जा जा जिन-जिन नारिओ स्त्रियों को दिच्छसि देखोगे, और उनमें भावं रागभाव को काहिसि पैदा करोगे, तो वाया बिद्धु वायु से प्रेरित हडो व्व हड़ नामक वनस्पति के समान अट्ठिअप्पा तुम्हारी आत्मा चल-विचल भविस्ससि होवेगी । — रहनेमिन्! जो तुम अनेक स्त्रियों को देख कर उनमें आसक्त होगे तो वायु से प्रेरित हड़ नामक वनस्पति की तरह तुम्हारी आत्मा डावाँडोल रहेगी। अर्थात् जिस प्रकार हड़ नामक वनस्पति हवा के लगने से इधर-उधर भ्रमण करती है, उसी प्रकार तुम्हारी आत्मा विषयरूप वायु से प्रेरित हो कर संसार में भ्रमण करेगी।
श्री दशवैकालिक सूत्रम् / ११