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९।१ ] श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
[ ४५ ३. महान् तथा उग्र तपस्या करने वाला तपस्वी कहलाता है तथा तपस्वी की सेवा करना 'तपस्वी वैयावृत्य' कहलाता है।
४. नवदीक्षित होकर शिक्षण प्राप्त करने वाला 'शैक्ष' कहलाता है। शैक्ष की सेवा शैक्ष वैयावृत्य।
५. रोग आदि से क्षीण/ग्लान को ग्लान कहते हैं। उसका वैयावृत्य 'ग्लान वैयावृत्य' कहलाता है।
६. भिन्न-भिन्न आचार्यों के शिष्य रूप साधु यदि परस्पर सहाध्यायी होने के कारण समान वाचना वाले हों तो उनका समुदाय 'गण' कहलाता है। गण की सेवा को गण वैयावृत्य कहते हैं।
७. एक आचार्य द्वारा दीक्षा प्राप्त-शिष्य परिवार 'कुल' है। कुल की सेवा को कुल वैयावृत्य कहते हैं।
८. धर्म का अनुयायी समुदाय 'संघ' कहलाता है। जो कि साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका के प्रकार से चतुर्विध संघ कहलाता है।
९. पंचम महाव्रत - दीक्षा धारी को 'साधु' कहते हैं। साधु की सेवा 'साधु वैयावृत्य' है। १०. ज्ञान दक्षता आदि गुणों में समान समानशील या समनोज्ञ कहलाता है। इस वैयावृत्य को समनोज्ञ वैयावृत्य या साधर्मिक वैयावृत्य कहते हैं।
* स्वाध्याय भेदाः * 9 सूत्रम् - वाचना प्रच्छनानुप्रेक्षाम्नाय धर्मोपदेशाः ॥२५॥
- सुबोधिका टीका वाचनेति। ज्ञानावावये, सन्देशनिवारणाय विशद-परिपक्व बोधोपगमाय, ज्ञान प्रचाराय प्रसाराय च प्रयत्ना: खलु + स्वाध्याय रूपेण व्यवहृता: सन्ति शास्त्रेषु।
अभ्यासानुगमशैलीमनुसृत्यात्र क्रमश: पञ्च भेदा: सूत्रे प्रदर्शिता: सन्ति-वाचना-प्रच्छनाअनुप्रेक्षा-आम्नाय-धर्मोपदेशाः।
शब्दमात्रस्य सार्थस्य वा प्रथमः पाठः वाचना कथ्यते। शङ्कामपनेतुं तत्त्वनिर्णेतुं जिज्ञासा प्रच्छना कथ्यते। शब्दपाठस्य, अधीत विषयार्थस्य वा चिन्तनम अनुप्रेक्षा कथ्यते। पठित विषयस्य