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श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
[ ९।१ वैचावृतय करने से आत्मा तीर्थंकर नाम गोत्रकर्म का उपार्जन करता है- यह है वैयावृत्य का उत्कृष्ट फल। जिसके आचरण से आत्मा संसार के सर्वोत्कृष्ट पद पर सुशोभित हो सकता है।वैयावृत्य, सेवा स्वरूप है। अत: दश प्रकार के सेवा योग्य पात्रों के होने के कारण वैयावृत्य के दश प्रकार कहे गये हैं। स्थानागसूत्र एवं भगवती सूत्र में भी कहा है
दशविहे वेयावच्चे पण्णते तं .. जहा दस प्रकार की वैयावृत्य होती है१. आयरिय वेयावच्चे - आचार्य की सेवा २. उवज्झाय वेयावच्चे - उपाध्याय की सेवा ३. थेर वेयावच्चे - स्थविर की सेवा ४. तवस्सि वेयावच्चे - तपस्वी की सेवा ५. गिलाण वेयावच्चे - रोगी की सेवा। ६. सेह वेयावच्चे - नव दीक्षित मुनि की सेवा।
७. कुल वेयावच्चे - एक आचार्य के शिष्यों का समुदाय कुल कहलाता है, उसकी सेवा करना कुल-वेयावृत्य।
८. गण यावच्चे - एक अथवा दो से अधिक आचार्य के शिष्यों का समुदाय गण कहलाता है। गण की सेवा को गण वैयावृत्य कहते हैं।
९. संघ वेयावच्चे - संघ की सेवा। अनेक गणों के समूह को संघ कहते हैं। मौलिक रूप से साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका का समूह एक संघ कहलाता है।
१०. साहम्मिय वेयावच्चे - साधर्मिक की सेवा। समान धर्म वाले साधर्मिक कहलाते हैं किन्तु यहाँ साधु के लिए साधु साधर्मिक तथा गृहस्थ के लिए गृहस्थ-साधर्मिक अर्थ अभीष्ट है।
श्री उमास्वाति ने भी इसी आशय को सुस्पष्ट करने की भावना से वैयावृत्य के दस प्रकारआचार्य, उपाध्याय, तपस्वी, शैक्ष, ग्लान, गण, कुल संघ, साधु और समनोज्ञ के रूप में बताए हैं।
१. मुख्य रूप से जिसका कार्यव्रत और आचार ग्रहण कराना होता है वह आचार्य है। आचार्य की सेवा आचार्य वैयावृत्य कहलाता है।
२. मुख्य रूप से जिसका कार्य श्रुताभ्यास करना हो उसे, उपाध्याय कहते हैं। उपाध्याय की सेवा उपाध्याय-वैयावृत्य कहलाता है। २. स्थानांग - १०।
भगवती सूत्र - ३५/७