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४० ] श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे ।
[ ९।१ 卐 सुबोधिका टीका आलोचनेति। आलोचनम्, प्रतिक्रणम्, तदुभयम् विवेकः, व्युत्सर्गः, तप:, छेदः, परिहारः, उपस्थापनम् एते प्रायश्चित्तस्य नव भेदा: सन्ति।
गुरोः समक्षं स्वापराधस्वीकार पूर्वकं दोषरहित भालोचनं प्रकटनं प्रकाशनं प्रायश्चित्तम। प्रतिक्रमणं मिथ्या दुष्कृतसंप्रयुक्तं प्रत्याख्यानं कायोत्सर्गकरणं च। एतदभय + मालोचनं प्रतिक्रमणे।
विवेचनं विशोधनं प्रत्युत्प्रेक्षणं विवेकः। अकल्पनीय वस्तूनां त्यागो विवेकः। एकाग्रता पूर्वक वाक्कायव्यापरत्यागो व्युत्सर्गः। अनशनादि बाह्यतप: करणं तपः। दोषानुसारेण पक्षं /मासं दिवसस्य पक्षस्य मासस्य वर्षस्य वा प्रव्रज्याया: न्यूनकरणं छेदः । यावत् संसर्गत्याग: परिहारः।
उपस्थापनं पुर्नदीक्षणं पुनश्चरणं पुनर्वतारोपण मिति यावत्। अहिंसा-सत्य-ब्रह्मचर्यादि व्रतानां भंगे सति तेषां महाव्रतानाम् आरोपण मेवोपस्थापनमिति शम्।
* सूत्रार्थ - आलोचन, प्रतिक्रमण, तदुभय, विवेक व्युत्सर्ग, तप, छेद, परिहार और उपस्थापन ये प्रायश्चित्त के नौ भेद हैं।
* आभ्यन्तर तपो भेदा: * ॐ सूत्रम् - नवचतुर्दशपंचद्विभेदं यथाक्रम प्रारध्यानात् ॥२१॥
॥ सुबोधिका टीका नवचतुर्दशेति। ध्यानात् पूर्वाणि आभ्यन्तरतपांसि क्रमश: नवधाचतुर्की, दशधा, पञ्चधा, द्विधा च भवन्ति।
* सूत्रार्थ - ध्यान के पूर्ववर्ती आभ्यान्तर तपों के क्रमश: नव, चार, दस, पाँच तथा दो भेद होते हैं।
* विवेचनामृतम् * आभ्यन्तर तप के छ: भेदों का वर्णन पूर्व में प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग तथा ध्यान के रूप में किया है। सम्प्रति ध्यान पूर्ववर्ती पाँच आभ्यन्तर तपों के भेदों के सन्दर्भ में प्रस्तुत सूत्र में कहा है कि प्रायश्चित्त के नौ भेद, विनय के चार भेद, वैयावृत्य के दश भेद, स्वाध्याय के पाँच भेद तथा व्युत्सर्ग के दो भेद होते है, जिनकी विशद व्याख्या आगामी सूत्रों के माध्यम से की जायेगी।
यहाँ ध्यातव्य है ध्यान का विचार विस्तृत होने के कारण उसे अन्त में रखकर, उससे पूर्ववर्ती प्रायश्चित्त आदि पाँच आभ्यन्तर तपों के भदों की संख्या बताई गई है।