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श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
* विवेचनामृतम् * प्रायश्चित्त के नौ भेद हैं- आलोचन, प्रतिक्रमण, तदुभय, विवेक, व्युत्सर्ग तप, छेद, परिहार और उपस्थापन।
स्खलना/त्रुटि/भूल के अनेक प्रकार सम्भव हैं। अत: भूल शोधन स्वरूप प्रायश्चित के भी अनेके प्रकार सम्भाव्य है किन्तु वे संक्षिप्त रूप से नौ प्रकार के है इसी भावना के साथ प्रस्तुत सूत्र की प्रवृत्ति है।
१. गुरू के सम्मुख/समक्ष शुद्ध भाव से अपनी स्खलना (भूल) को प्रकट करना 'आलोचन' कहलाता है।
२. संजात त्रुटि का अनुताप करके उससे निवृत्त होना तथा त्रुटि की पुरावृत्ति न हो एतर्थ सतत सावधान रहना- प्रतिक्रमण कहलाता है।
३. आलोचन एवं प्रतिक्रमण को साथ-साथ करना ही तदुभय या मिश्र कहलाता है।
४. विवेक, विवेचन विशोधन तथा प्रत्युपेक्षण शब्द पर्यायवाची है। खाने-पीने आदि की यदि अकल्पनीय वस्तु आ जाये तथा आने के बाद पता चले तो उसका त्याग करना विवेक कहलाता है। अर्थात् मिले हुए अन्न-पान आदि को पृथक्-पृथक् करना विवेक प्रायश्चित्त कहलाता है।
५. एकाग्रतापूर्वक शरीर और वचन के व्यापारों को छोड़ना व्युत्सर्ग कहलाता है। ६. अनशन आदि बाह्य तप की आराधना को 'तप' कहते हैं।
७. दोष लगने पर दोष के अनुसान दिवस, पक्ष, मास या वर्ष तक की अवधि तक प्रव्रज्या (दीक्षा) कम करना 'छेद' कहलाता है।
८. दोष के भागी व्यक्ति से उसके दोष के अनुसार पक्ष, मास आदि तक व्यवहार। संसर्ग आदि न करना, उसे अमुक अवधि तक छोड़ देना- परिहार कहलाता है।
९. अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह नामक महाव्रतों का भंग होने पर पुनः प्रारम्भ से उन महाव्रतों का विधिवत् आरोपण करना- 'उपस्थापन' कहलाता है।
___* विनय भेदाः * ज्ञान-दर्शन-चारित्रोपचाराः॥२३॥
卐 सुबोधिका टीका है ज्ञानदर्शनेति। प्रायश्चित्त + भेदान् पूर्व निरूप्य सम्प्रति क्रमप्राप्तान् विनय भेदान् गणयति