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९।१ ] श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
[ ३९ * आभ्यन्तरतपः * ॐ सूत्रम् - प्रायाश्चित्तविनयवैयावृत्यस्वाध्याय-व्युत्सर्गध्यानान्यत्तरम् ॥२०॥
सुबोधिका टीका प्रायश्चित्तेति। आभ्यनत + रतपस: षड्भेदा: प्रायश्चित्तं, विनयो, वैयावृत्यं स्वाध्यायो व्युत्सर्गो ध्यानमिति।
धारित व्रतेषु प्रमादजनितदोषाणां शोधनं प्रायश्चितम्। विनयो नाम ज्ञानादि सद्गुणेषु आदरभावः। वैयावृत्यं-योग्यसाधनान् एकत्रीकृत्य सेवाशुश्रुषाकरणम्। विनयो मानसिको धर्मः। वैयावृत्यं नाम शारीरिकधर्मः। विनयवैयावृत्ययोरयनमेव भेदः। ज्ञान प्राप्तये विविध + प्रकार का गमादीना + मध्ययनं स्वाध्याय:। अहंता-ममता परित्यागो व्युत्सर्गः। चित्त विक्षेपत्यागो ध्यानम्॥
* सूत्रार्थ - प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय व्युत्सर्ग और ध्यान - ये छ: आभ्यन्तर तप हैं।
* विवेचनामृतम् * आभ्यन्तर तप के छ: भेद है- प्रायश्चित्त विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग और ध्यान ।
ग्रहण किए गए व्रतों की पालना में प्रमाद आदि के कारण आगत दोषों का परिमार्जन | शोधन करना- प्रायश्चित कहलाता है।
ज्ञान, संयम आदि गुणों के प्रति आदर भाव रखना- 'विनय' कहलाता है। योग्य साधन से या स्वयं दत्तचित्त होकर सेवा शुश्रुषा करना- 'वैयावृत्य' कहलाता है। विनय और वैयावृत्य में यही अन्तर है कि विनय मानसिक धर्म है और वैयावृत्य शारीति धर्म है। ज्ञान प्राप्ति के लिए विविध प्रकार से आगम-शास्त्रों का अध्ययन करना ही 'स्वाध्याय' कहलाता है। अहंता तथा ममता का त्याग करना- 'व्युत्सर्ग' कहलाता है। चित्त के विक्षेपों का त्याग करना- 'ध्यान' कहलाता है।
. * प्रायश्चित भेदा: * ॐ सूत्रम् -
आलोचनप्रतिक्रमणतदुभय + विवेक व्युत्सर्ग
तपश्छेदपरिहारोपस्थापनानि ॥२२॥