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९।१ ] श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
[ २९ (१८) जल्ल परीषह - ग्रीष्मकाल में शरीर पर पसीना, मैल आदि होने पर उस वेदना को समतापूर्वक सहना जल्लपरीषह कहलाता है।
(१९) सत्कार पुरस्कार परीषह - वद्धादि के दान से अथवा वन्दना से किसी ने सत्कार किया तो किसी प्रकार का गर्व न महसूस करना। सम्मान या जय जयकार से प्रसन्न होना तथा अपमान से खिन्न न होना- ‘सत्कार-पुरस्कार-परीषह' कहलाता है।
(२०) प्रज्ञापरीषह - अपनी प्रखर प्रज्ञा पर भी गर्व न करना या प्रज्ञा (बुद्धि) की उत्कृष्टता न होने का खेद न करना 'प्रज्ञापरीषह' कहलाता है।
(२१) अज्ञान परीषह - ज्ञानावरणीयादि कर्मोदयवश यदि किसी साधु को बहुत परिश्रम करने पर भी ज्ञान न प्राप्त हो, स्मरण न रहे समझ में न आए तब भी किसी प्रकार खिन्न नहीं होना, समताभाव की साधना को बनाए रखना ही अज्ञान परीषह कहलाता है।
(२२) अदर्शन परीषह - मुनि को अपने सम्यग् दर्शन में सुदृढ़ रहना चाहिए। अन्य दर्शनों के विद्वनों की प्रसिद्धि या उपलब्धि से आकर्षित नहीं होना चाहिए।अपने सम्यग् दर्शन में निष्ठापूर्वक तल्लीन रहना चाहिए। मिथ्यादर्शन युक्त विचार न करना ही 'अदर्शन परीषह' कहलाता
केषां केषां गुणस्थान वर्तिजीवानां कियान कियान् परिषहः इति विशदीकरोतिॐ सूत्रम् - सूक्ष्मसंपरायछद्मस्थवीतरागयोश्चर्तुदश॥६-१०॥
॥ सुबोधिका टीका फु सूक्ष्मसंपरोयेति। सूक्ष्म सम्पारयगुणस्थानवतां छद्मस्थवीतरागसंयमिनाञ्चोक्तेषु द्वाविंशति परिषहेषु चतुर्दश परिषहा: सजायन्ते। तयथा-क्षुधापरिषहः पिपासापरिषहः, शीतपरिषहः, उष्णपरिषहः, दंशमशक परिषहः, चर्यापरिषहः, प्रज्ञापरिषहः, अज्ञानपरिषहः, अलाभपरिषहः, शय्यापरिषहः, वधपरिषहः, रोगपरिषहः, तृणस्पर्शपरिषहः, मलपरिषहश्चेति।
यस्मिन् चरित्रे लोभकषायोऽतिमन्दो भवति स सूक्ष्मसम्परायः। चरित्रमिदम् उपशमश्रण्यां क्षपकश्रेण्यां वा प्राप्यते। उपशम श्रेणी,दशमगुणस्थानपर्यन्तं भवति।
* सूत्रार्थ - सूक्ष्म संपराय (सुक्ष्मकषाय) वाले तथा छद्मस्थ वीतरागी संयमियों के बाईस परीषहों में से कुल चौदह परीषह होती है- १. क्षुधा परीषह २. पिपासा परीषह ३. शीतपरीषह