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श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
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९ । १
४. ऊष्णपरीषह ५. दंशमशकपरीषह ६. चर्यापरीषह ७. प्रज्ञापरीषह ८ अज्ञान परीषह ९. अलाभपरीषह १०. शय्यापरीषह ११. वधपरीषह १२. रोगपरीषह १३. तृणस्पर्शपरीषह १४. मल परीषह ।
* विवेचनामृत
संपराय का अर्थ है- कषाय । जब लोभ रूपी कषाय की अत्यन्त मन्दता होती है तथा कषायात्मकता नितान्त हल्की हो जाती है तो उसे 'सूक्ष्मसंपराय' कहते हैं । सुक्ष्मसंपराय वाले एवं छद्मस्थ वीतरागी संयमियों के मात्र चौदह परीषह होते है ।
जिस चरित्र में लोभ कषाय अतिमन्द होता है वह 'सूक्ष्म संपराय' कहलाता है। यह दशम गुणसथान की संज्ञा है। जब तक केवल ज्ञान नहीं हुआ हो परन्तु कषाय कर्म शान्त या क्षीणतर / लघुतर हो चुके हों ऐसे ग्यारहवें तथा बारहवें गुणस्थान को 'छद्मस्थ वीतराग' कहतें हैं। पूर्वोक्त तीनों ही गुणस्थानों में मात्र चौदह परीषह प्राप्त होते हैं।
5 सूत्रम् -
एकादश जिने ॥६- ११॥
सुबोधिका टीका
एकादशेति। वेदनीय कर्मोदयात् एते एकादश गुणाः उत्पद्यन्ते । एते एकादश परिषहा: त्रयोदशगुणस्थान वतां चतुर्दश गुणस्थान वतामपि जिनानां संभवन्ति । ते चेथयम् सन्तिक्षुधापरिषह-पिपासापरिषह - शीतपरिषह - उष्णपरिषह - दंशमशकपरिषह - चर्यापरिषह - शय्यापरिषह -वधपरिषह-रोगपरिषह-तृणस्पर्शपरिषह-मलपरिषहा ॥ ८-११॥
* सूत्रार्थ - वेदनीय कर्मों के उदय के कारण जिन भगवान् तेरहवें तथा चौदहवें गुणस्थान वालों के ये ग्यारह परिषह होते हैं - १. क्षुधापरिषह २. पिपासा परिषह ३. शीतपरिषह ४. ऊष्णपरिषह ५. दंशमकपरीषह ६. चर्यापरिषह ७. शय्यापरिषह ८. वधपरिषह ९. रोगपरिषह १०. तृणस्पर्शपरिषह ११. मलपरिषह ।
* विवेचनामृत
वेदनीय कर्म का उदय तेरहवें गुणस्थानी जिनेश्वर भगवान् में भी पाया जाता है। अतएव ये ग्यारह परिषह जिन भगवान् में भी होते है। दिगम्बर सम्प्रदाय में प्रस्तुत सूत्र की व्याख्या या विवेचना करते हुए 'सन्ति' तथा 'न सन्ति' क्रिया पद जोड़कर भी की गई है। 'सन्ति' क्रिया पद जोड़ने पर जिन भगवान् में ग्यारह परिषह होते हैं तथा 'न सन्ति' जोड़ने पर ये ग्यारह परिषह भी जिनेश्वर भगवान् के नहीं होते है - ऐसा भाव प्रकट किया गया है।