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श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे साधक पर अकस्मात् सिंह, व्याघ्र, सर्प, व्यन्तरदेव आदि का उपद्रव हो जाए तो आतंक या भय को अकम्प-भाव से जीतना, आसन से विचलित नहीं होना-'निषद्या परीषह' कहलाता है।
(११) शय्यापरीषह - शय्या का अर्थ- आचारंग सूत्र के अनेसार वसति' है। साधु को कहीं एक रात रहना पड़े तो वहाँ प्रिय या अप्रिय स्थान या उपाश्रय मिलने, पर हर्ष-शोक न करना। सर्द-गर्म-जैसी परिस्थिति को समभाव से सहना- 'शय्या परीषह' कहलाता है।
(१२) आक्रोषपरीषह - किसी ग्राम में पहूँचने पर साधुक्रिया, वेषभूषा आदि देखकर ईर्ष्यावश कोई अज्ञ व्यक्ति यदि आवेश में आकर यदि कुछ अप्रिय कहे, मिथ्या दोषारोपण करे तो, समभाव से सहन करना आक्रोश परीषह' कहलाता है।
(१३) वध परीषह - क्रोधावेश में आकर अगर कोई मनुष्य, साधु को मारे-पीटे लाठी आदि से प्रहार करे तब भी साधु, रोष न करे अपितु समताभाव में रहता विचार करे कि यह अज्ञानवश ऐसी चेष्टा कर रहा है। यह शरीर पर प्रहार कर रहा है किन्तु मेरी आत्मा को कोई क्षति नहीं पहुंचा सकता है। इस प्रकार से समताभाव पूर्वक सहन शक्ति का परिचय देनर ही वधपरीषह' कहलाता है।
(१४) याचना परीषह - आहार, औषध आदि की आवश्यकता होने पर अनेक घरों से भिक्षा माँग कर लाने में मन में किसी प्रकार की लज्जा ग्लानि, दीनता, अभिमान आदि का भाव नहीं लाना चाहिए कि मैं उच्च कुल का होकर कैसे भिक्षा मांगू? वरन् यह विचार करना चाहिए कि मैं साधु हूँ भिक्षु हूँ भिक्षावृत्ति मेरा कर्तव्य है, मेरी साधना का सहायक अङ्ग है। संयम यात्रा के समुचित निर्वाह के लिए यह साधु की आचार संहिता का अभिन्न अङ्ग है। इस प्रकार का आचरण ही याचना परीषह कहलाता है।
(१५) अलाभपरीषह - याचना भिक्षावृत्ति के समय यदि विधिपूर्वक अभीष्ट एवं कल्पनीय वस्तु की प्राप्ति न होने पर भी अन्तराय कर्म का क्षयोपशम मानकर त्याग वृत्ति का परिचय देना चाहिए। अलाभ परीषह को सहन करने में दीनता, हीनता या खिन्नता का भाव कदापि नहीं होना चाहिए। अलाभ परीषह को सहज रूप से सहन करना ही उत्कृष्ट साधुवृत्ति का परिचायक है।
(१६) रोगपरीषह - शरीर में किसी प्रकार कष्ट होने पर अद्विग्नता रहित सहनशीलता का परिचय देना- रोगपरीषह कहलाता है।
(१७) तृण-स्पर्श - संस्तारक आदि की न्यूनता होने पर या संलेखना-संथारे के समय सूखे तृण घास आदि पर शयन करने उसकी कठोरता या चुभन को सहन करना तृण स्पर्श परीषह कहलाता है।