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६।२६ ] षष्ठोऽध्यायः
[ ४६ एते साम्परायिकास्रवस्य अष्टविधकर्मणः पृथक् पृथगास्रवविशेषाः भवन्ति । कार्माणवर्गणानां प्रात्मना सहकक्षेत्रावगाहो भूत्वा कर्मरूपपरिणमनं भवति। तस्य हेतु योगः कषायश्च । योगकषायाभ्यां जीवस्य मन-वचन-कायप्रवृत्तिः यादृशी भवति तादृशी परिणतिः भवति । सा हि स्वयोग्यतानुसाराष्टकर्मभिः यस्य यस्य बन्धस्य योग्यः जायते, तस्य तस्य कर्मणः बन्धोऽपि भवति ॥ ६-२६ ।।
* सूत्रार्थ-दान इत्यादि में विघ्न करने से अन्तराय कर्म का आस्रव होता है ॥ ६-२६ ।।
विवेचनामृत , दानान्तराय, लाभान्तराय, भोगान्तराय, उपभोगान्तराय तथा वीर्यान्तराय, ऐसे पाँच प्रकार का अन्तराय कर्म है। किसी को भोग, उपभोगादिक क्रियाओं में या दानादि देते हुए को रोकना अथवा उसमें विघ्न करना यह अन्तराय कर्म का बन्धहेतु है।
अर्थात्-दान-स्वपर के अनुग्रह की बुद्धि से स्व-वस्तु पर को देनी, यह दान कहा जाता है। लाभ-वस्तु की प्राप्ति होना, इसे लाभ कहा जाता है। भोग-एक ही बार भोग कर सके, ऐसे शब्दादि विषयों का उपयोग करना, यह भोग कहा जाता है। उपभोग-अनेक बार भोग कर सके. ऐसी स्त्री तथा वस्त्रादिक पदार्थों का भोग करना, यह उपभोग कहा जाता है। तथा वीर्यआत्मिक शक्ति को वीर्य कहा जाता है। इन पाँचों का अन्तराय करना क्रमशः दानान्तराय, लाभान्तराय, भोगान्तराय, उपभोगान्तराय तथा वीर्यान्त राय कहे जाते हैं ।
(१) दानान्तराय-दान देने वाला दान नहीं दे सके ऐसे प्रयत्नपूर्वक दान में अन्तराय (विघ्न) करना। ज्ञानदान इत्यादि अनेक प्रकार के दान हैं। जिस-जिस दान में विघ्न करने में आवे, वह-वह दानान्तराय कर्म बांधता है। जैसे-ज्ञानदान में अन्तराय करने से ज्ञान दानान्तराय कर्म का बन्ध होता है। उस कर्म के उदय में आने पर ज्ञान होते हुए भी अन्य-दूसरे को ज्ञान नहीं दे सकते हैं।
किसी के सत्कार-सम्मान के दान में अन्तराय करने से गुणीजन को सत्कार-सम्मान इत्यादि का दान नहीं कर सके ऐसे कर्मों का बन्ध होता है। इसी माफिक सुपात्रदान तथा अभयदान आदि में भी जानना।
(२) लाभान्तराय--ज्ञान तथा धन इत्यादिक की प्राप्ति में अन्य-दूसरे को विघ्न करने से ज्ञान और धन इत्यादिक का लाभान्तराय कर्म बँधता है। जैसे-दूसरे को ज्ञान की प्राप्ति में विघ्न करना, चोरी तथा अनीति इत्यादि करके अन्य-दूसरे के धनलाभ में अन्तराय करना इत्यादि ।