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६।१५ ] षष्ठोऽध्यायः
[ ३५ बोलना-लिखना महापाप है। इसलिए स्वयं अवर्णवाद नहीं बोले-लिखे। अन्य-दूसरे बोलें या लिखें तो उसमें भी हाँजी-हाँजी नहीं करनी। इतना ही नहीं उसको सुनना भी महापाप है। इसलिए उसके सुनने-वांचने में भी अधिक ही सावधानी रखने की जरूरत है ।। (६-१४)
* चारित्रमोहनीयकर्मणः प्रास्रवाः *
ॐ मूलसूत्रम्__ कषायोदयात् तीव्रात्मपरिणामश्चारित्रमोहस्य ॥ ६-१५॥
* सुबोधिका टीका * राग-द्वेष-क्रोध-मान-माया-लोभादिभिः वशीभूतः जीवः यदा-कदा तद्परिणामे परिणमति येन तस्य धर्मसाधनानि विनश्यन्ति, साधनेऽन्तरायाणि उद्भवन्ति; व्रतिनः व्रते शिथिलाः भवन्ति । कषायोदयात् तीव्रात्मपरिणामश्चारित्रमोहस्यास्रवो भवति ॥ ६-१५ ।।
* सूत्रार्थ-कषाय के उदय से प्रात्मा के जो तीव्र परिणाम होते हैं, उनसे चारित्र मोहकर्म का बन्ध हुआ करता है ।। ६-१५ ।।
ॐ विवेचनामृत कषायोदयी तीव्र आत्मपरिणाम चारित्र मोहनीय कर्म के बन्ध हेतु प्रास्रव हैं। अर्थात्कषाय के उदय से आत्मा के अत्यन्त संक्लिष्ट परिणाम चारित्र मोहनीय कर्म के प्रास्रव हैं।
(१) स्व तथा पर में कषाय उत्पन्न करने की चेष्टा करनी या कषाय के वश हो करके तुच्छ प्रवृत्ति करनी, वह कषाय मोहनीयकर्म के बन्ध का कारण है।
(२) सत्यधर्म का अथवा गरीब या दीन मनुष्य का उपहास करना, इत्यादि हास्यकारी वृत्ति से हास्य मोहनीय कर्म का बन्ध होता है ।
(३) अनेक प्रकार की क्रीड़ादिक में मग्न-लीन रहना, वह रति मोहनीयकर्म का बन्ध हेतु है।
(४) अन्य दूसरे को कष्ट पहुँचाना, किसी की शान्ति में बाधा डालनी इत्यादि अरति मोहनीयकर्म का बन्ध हेतु है।
(५) स्वयं शोकातुर रहना या शोकवृत्ति को उत्तेजित करना, वह शोक मोहनीयकर्म के बन्ध का कारण है।
(६) अपने में या अन्य में भय उपाजित करना, वह भय-मोहनीयकर्म का बन्ध हेतु है ।