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३४ ] श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
[ ६।१४ सर्वज्ञ होने से मोक्ष के समस्त प्रकार के उपायों को जानते हुए तप-त्याग आदि क्लिष्टकठिन उपाय बताते हैं। तथा निगोद के स्थान में अनंत जीव नहीं हो सकते इत्यादि रूप में केवली भगवन्त का प्रवर्णवाद दर्शनमोहनीय कर्म का प्रास्रव है।
(२) श्रुत-धर्मशास्त्रों को द्वेषबुद्धि से असंगत कह उनका अवर्णवाद करना। जैसेअर्थ से सर्वज्ञविभु श्रीतीर्थंकर-जिनेश्वर भाषित तथा सूत्र से श्रीगणधर भगवान गुम्फित श्रीपाचारांग इत्यादि अंगसूत्र, श्रीग्रौपपातिक आदि उपांग सूत्र तथा छेद ग्रन्थ इत्यादि श्रुत हैं। ये सूत्र प्राकृत भाषा में-सामान्य भाषा में रचे हुए हैं। इनमें एक ही एक वस्तु का निरर्थक वर्णन बार-बार प्राता है। व्रत, षट्जीवनिकाय तथा प्रमाद प्रमुख का निरर्थक पुनः पुनः उपदेश पाता है। अनेक प्रकार के अयोग्य अपवाद भी बताए हैं। इत्यादि रूप में श्रुत का अवर्णवाद दर्शन मोहनीय का आस्रव है।
(३) संघ-साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका यह चार प्रकार का संघ है। साधु एवं साध्वी अपने देह-शरीर आदि की पवित्रता नहीं रखते हैं। कभी स्नान भी करते नहीं हैं। समाज को भाररूप होते हैं। समाज का अन्न खाने पर भी समाज की सेवा करते नहीं हैं। श्रावक और श्राविकाएँ स्नान को धर्म मानते नहीं, ब्राह्मणों को दान देते नहीं, तथा हॉस्पिटल इत्यादि आरोग्य के साधन बनाते नहीं। इत्यादि रूप में चतुर्विध संघ पर मिथ्या दोषारोपण करके अवर्णवाद बोलना वह दर्शनमोहनीय का प्रास्रव है ।
(४) धर्म-अहिंसादि स्याद्वादमयी परमोत्कृष्ट सद्धर्म का बिना जाने-समझे अवर्णवाद बोलना। अर्थात्-पंचमहाव्रत इत्यादि अनेक प्रकार के धर्म हैं। धर्म का प्रत्यक्ष फल दिखाई देता नहीं, इसलिए धर्म हंबक है। धर्म से ही सुख मिलता है, ऐसा नहीं है। क्योंकि धर्म करते हुए भी दुःखी और धर्म नहीं करते हुए भी सुखी देखे जाते हैं। इत्यादि रूप में धर्म का अवर्णवाद दर्शनमोहनीय का प्रास्रव है।
(५) देव-भवनपत्यादि देवों का अवर्णवाद (निन्दा) करना। यहां देव शब्द से भवनपति इत्यादि देव विवक्षित हैं। 'देव हैं नहीं।' 'जो देव होते यहाँ क्यों नहीं पाते हैं ? 'देव मद्य-मांस का सेवन करते हैं।' इत्यादि रूप से देवों का अवर्णवाद दर्शनमोहनीय कर्म का प्रास्रव है।
तदुपरान्त भी कहा है कि -मिथ्यात्व के तीव्र परिणाम रखना, उन्मार्ग की देशना देनासुनना, धार्मिक लोक के दूषण देखना, असद् अभिनिवेश (कदाग्रह) करना तथा कूदेव आदि का सेवन इत्यादि भी दर्शनमोहनीय के प्रास्रव हैं। इन पास्रवों से भवान्तर में सद्धर्म नहीं मिले ऐसे कर्मों का बन्ध होता है।
* अति आवश्यक सूचना-जैसे दुःख का मूल संसार है, वैसे संसार का मूल दर्शनमोहनीयमिथ्यात्व है। इसलिए साधक जीव-प्रात्मा को जाने-अनजाने, भूले-चके भी सर्वज्ञविभु श्री केवली भगवन्त आदि का भी अवर्णवाद अपने से न हो जाय, उसकी सावधानी अवश्य रखनी चाहिए । देव इत्यादिक के विषय में बोलने से पहले पूरा विचार करना चाहिए। किसी का भी अवर्णवाद