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श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्र
[ ६।१६ (७) अहितकारी क्रिया तथा अहितकर आचरण जुगुप्सा-मोहनीयकर्म का बन्धहेतु होता है ।
(८-६-१०) ठगी अथवा परदोषदर्शन के स्वभाव से स्त्रीवेद और स्त्री-जाति योग्य या पुरुष जाति योग्य या नपुंसक जाति योग्य संस्कारों के अभ्यास से स्त्री, पुरुष, नपुसक वेद का यथाक्रम बन्ध होता है। ये सब चारित्र-मोहनीयकर्म के बन्ध हेतु प्रास्रव हैं। उक्त कथन का सारांश यह है कि
सम्यग्दर्शनादि गुण-सम्पन्न साधु-साध्वियों की तथा श्रावक-श्राविकाओं की निन्दा करनी, उन पर असत्य-झूठे आरोप लगाना, उनकी साधना में विघ्न खड़े करना-डालना उनके दोष-दूषणों को ही देखते रहना, स्वयं कषाय करना और अन्य-दूसरे को कषाय में प्रवृत्त करना इत्यादि संक्लिष्ट परिणामों से भवान्तर में चारित्र-दीक्षा की प्राप्ति न हो; ऐसे कर्मों का बन्ध होता है ।। (६-१५)
* नरकगतेः प्रायुष्यस्य प्रास्रवाः *
卐 मूलसूत्रम्बह्वारम्भ-परिग्रहत्वं च नारकस्यायुषः ॥ ६-१६ ॥
* सुबोधिका टीका * बहुत्वं द्विविधं संख्यारूपं वैपुल्यरूपञ्च । 'मदियमिति' ममकाररूप संकल्पः परिग्रहः भवति । अनेन च संकल्पेन अनेकानेकभोगसामग्री - परिग्रहः प्रारम्भः । अस्यात्यधिकत्वं नरकायुषः बन्धनम् । बह्वारम्भता, बहुपरिग्रहता च नरकस्यायुष प्रास्रवो भवति ।। ६-१६ ।।
* सूत्रार्थ-अति प्रारम्भ और अति परिग्रह धारण करने से नरकायुष्य का प्रास्रव होता है ।। ६-१६ ।।
+ विवेचनामृत ॥ अतिशय प्रारम्भ और अतिशय परिग्रह नरकायु के प्रास्रव हैं । (१) 'जीवों को दु:ख हो' इस प्रकार की कषायपूर्वक प्रवृत्ति से महारम्भ करना । (२) धन तथा कुटुम्बादि पर ममत्व रख करके महापरिग्रह को बढ़ाने के लिए तीव्र अभिलाषा
इच्छा करनी। (३) पञ्चेन्द्रिय प्राणियों की हिंसा करना, अर्थात् उनका घात करना ।
मांसभक्षण इत्यादि कारण नरकायुष्य कर्मबन्ध के हेतु हैं ।
उक्त कथन का सारांश यह है कि-मांसाहार, पंचेन्द्रिय वध, कृष्णलेश्या के परिणाम, रौद्रध्यान तथा तीव्र कषाय प्रादि नरकगति के प्रास्रव हैं। इन पासवों से भवान्तर में नरक में जाना पड़े, ऐसे कर्मों के बन्ध होते हैं ।। ६-१६ ।।