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श्री तत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
[ ६।१०
श्राते नहीं | इसे नेत्र-नयन से बराबर देखने के बाद भी रजोहररण इत्यादि जीवरक्षा के साधन से भूमि का प्रमार्जन करना चाहिए। जिससे वहाँ पर रहे हुए सूक्ष्म जीव दूर हो जाते हैं । अर्थात् - जो चीज वस्तु जहाँ रखनी हो, तो वहां पर दृष्टि से निरीक्षण तथा रजोहरणादिक से भूमि का प्रमार्जन नहीं करने में आए, करने में आए, तो भी बराबर करने में न आए, तो वहाँ पर निक्षेप श्रधिकररण बनता है । उसमें भी जो दृष्टि से बराबर निरीक्षण करने में नहीं आये तो प्रत्यवेक्षित तथा रजोहरण इत्यादिक से बराबर प्रमार्जन करने में नहीं आए तो दुष्प्रमार्जित ऐसे दो निक्षेप अधिकरण बनते हैं । बाद में सहसा और अनाभोग निक्षेप भी निरीक्षण तथा प्रमार्जन नहीं करने से अथवा बराबर नहीं करने से ही बनते हैं ।
प्रथम के दो (प्रत्यवेक्षित और दुष्प्रमार्जित) बेदरकारी प्रमाद से बनते हैं, जबकि सहसा और अनाभोग बेदरकारी- प्रमाद से नहीं बनते हैं, किन्तु क्रमशः सहसा तथा विस्मृति से बनते हैं । अनाभोग में बेदरकारी तो है, किन्तु प्रथम के अप्रत्यवेक्षित तथा दुष्प्रमार्जित जितनी नहीं है । आम कारणभेद के कारण से एक ही निक्षेप के चार भेद पड़ते हैं ।
(३) संयोग - यानी एकत्र करना अर्थात् भेली करना- जोड़ना ।
इसके मुख्य दो भेद हैं ।
[१] भक्तपान संयोगाधिकरण अर्थात् - अन्न जलादि भोजन सामग्री का संयोग करना । जैसे भोजन को स्वादिष्ट बनाने के लिए रोटी आदि के साथ गुड़, मुरब्बा तथा सब्जी-शाक इत्यादि का संयोग करना । एवं दुग्ध-दूध आदि में शक्कर डालनी इत्यादि ।
[२] उपकरण संयोगाधिकरण - अर्थात् - अन्न-जलादि भोजन से भिन्न सामग्री वस्त्र तथा प्राभूषण आदि का संयोग करना इत्यादि । वेश-भूषा के उद्देश्य से पहरने का एक वस्त्र नवा हो और एक वस्त्र जूना हो, तो जूना वस्त्र निकाल करके दूसरा भी नवा वस्त्र पहरना इत्यादि ।
( ४ ) निसर्ग - यानी त्याग | निसर्ग अधिकरण प्रवर्तमान होना । इसके मुख्य तीन भेद हैं । मन, वचन और काया । इन तीनों की प्रवर्तना से इसको क्रमश: मनोनिसर्ग, वचननिसर्ग और कार्यनिसर्ग कहते हैं ।
* मनोनिसर्ग - अर्थात् - शास्त्रविरुद्ध विचार करना । यहाँ मन का त्याग यानी मन रूप से परिमित मनोवर्गरणा के पुद्गलों का त्याग ।
* वचननिसर्ग - (भाषानिसर्ग ) अर्थात् - शास्त्र से विरुद्ध बोलना । यहाँ पर भाषा का त्याग यानी भाषा रूप में परिगमित भाषा वर्गणा के पुद्गलों का त्याग करना ।
* कायनिसर्ग - शस्त्र, श्रग्निप्रवेश, जलप्रवेश तथा पाशबन्धन इत्यादिक से काया- शरीर का त्याग करना ।