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________________ ६।११ ] षष्ठोऽध्यायः [ २५ इसी अध्याय के पांचवें सूत्र में सकषायिक योग से साम्परायिकास्रव तथा अकषायिक योग से ईर्यापथिकास्रव कहा है। इसकी मूल प्रकृति तथा उत्तर प्रकृति का विस्तारयुक्त वर्णन पाठवें अध्याय में कहेंगे । यहाँ तो केवल इतना ही समझाते हैं कि-कौनसे-कौनसे साम्परायिक प्रास्रवों से कौनसा-कौनसा कर्मबन्ध होता है, बन्धहेतुओं की भिन्नता से कर्मों की भिन्नता होती है। इसलिए उनके बन्धहेतुओं का वर्णन आगे आते हुए सूत्र से करते हैं। [विशेष सूचना-यहां तक सामान्य से आस्रव का और आस्रव में होने वाली विशेषता के कारण का वर्णन किया है। अब ज्ञानावरणीय आदि आठ कर्मों के आश्रय से उस-उस कर्मसम्बन्धी विशेष प्रास्रवों का क्रमशः वर्णन प्रारम्भ होता है। ज्ञानावरणीयादि अष्ट कर्मों का वर्णन आठवें अध्याय के तीसरे सूत्र से शुरू होगा] ।। ६-१० ।। * ज्ञानावरणीय-दर्शनावरणीयकर्मणोः प्रास्रवाः * 卐 मूलसूत्रम्तत्प्रदोष-निह्नव-मात्सर्या-ऽन्तराया-ऽऽसादनोपघाता ज्ञानदर्शनावरणयोः ॥६-११॥ * सुबोधिका टीका * प्रदोषादिषड्कारणानि ईदृशानि यः ज्ञानावरणीय-दर्शनावरणीयकर्मणां बन्धो भवति । प्रास्रवो ज्ञानस्य ज्ञानवतां ज्ञानसाधनानां च प्रदोषो, निह्नवो मात्सर्यमन्तराय प्रासादन उपघात इति ज्ञानावरणास्रवा भवन्ति । एतैर्हि ज्ञानावरणं कर्म बध्यते । एवमेव दर्शनावरणस्येति । तत्त्वज्ञानप्रशस्त कथनीं श्रुत्वा ईर्ष्णया मौनाचरणं आदिदूषितं । परिणाम प्रदोषम् । ज्ञानगोपनं निह्नवम् । ज्ञानाभ्यासान्तरायं गुरुद्रोहणं च ज्ञानप्रसारविच्छेदोऽन्तरायः । अन्यप्रकाशितज्ञानान्तरायमासादनम् । प्रशस्तेऽपि ज्ञाने दूषणदृष्टिः उपघातः ।। ६-११ ।। * सूत्रार्थ-ज्ञान और दर्शन के साधनों का प्रदोष, निह्नव, मात्सर्य, अन्तराय, प्रासादन और उपघात करने से ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय कर्म का बन्ध होता है ।। ६-११ ॥
SR No.022534
Book TitleTattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tika Tatha Hindi Vivechanamrut Part 05 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaysushilsuri
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1998
Total Pages264
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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