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________________ ६।६ ] षष्ठोऽध्यायः [ २१ साम्परायिकास्रवभेदेषु जीवाधिकरणभेदाः कथिताः किन्तु अधिकरणस्य द्वितीयमजीवरूपं न जातम् । प्रथाजोवाधिकरणं किमिति ? ।। ६-६ ।। = * सूत्रार्थ - प्रथम जीवाधिकरण के संक्षेप से मूल में तीन भेद हैं-संरम्भ, समारम्भ और प्रारम्भ | ये तीनों भाव मन, वचन और काया के द्वारा ही हो सकते हैं । अतः ३ x ३ ६ हुए । ये नवों भेद कृत, कारित और अनुमोदना इस तरह तोन प्रकार से सम्भव होने से ६ x ३ २७ भेद हुए । ये सत्ताइस भेद क्रोधादि चार कषायों द्वारा होने से २७ x ४ = १०८ भेद जीवाधिकरण के हुए ।। ६-६ ।। विवेचनामृत 5 संरम्भ, समारम्भ, आरम्भ, तीन योग, कृत, कारित, अनुमत, चार कषाय । इन समस्त के संयोग से जीवाधिकरण के १०८ भेद होते हैं । १०८ भेद संरम्भ, समारम्भ और प्रारम्भ । ये तीन मन, वचन तथा काया द्वारा होते हैं, इसलिए ३×३=६ । इन नौ भेदों को जीव आत्मा स्वयं करता है, कराता है और अनुमोदता है, इसलिए ε×३=२७। इन २७ भेदों में क्रोधादिक चार कषाय निमित्त बनते हैं, इसलिए २७×४=१०८ भेद जीवाधिकरण के होते हैं । संरम्भादि का अर्थ संरंभ' = हिंसा आदि क्रिया का संकल्प । करनी । समारंभ = हिंसा आदि के संकल्प को पूर्ण करने के लिए आवश्यक सामग्री इकट्ठी करनी । प्रारंभ = हिंसा आदि की क्रिया करनी । मन-वचन-काया इन तीन योगों का स्वरूप इस अध्याय के प्रथम सूत्र में पहले आ गया है । कृत = स्वयं हिंसा आदि की क्रिया करनी । कारित = = अन्य दूसरे के पास हिंसा आदि की क्रिया करानी । = अनुमत= अन्य दूसरे के द्वारा होने वाली हिंसा आदि क्रिया की अनुमोदना करनी- प्रशंसा १. संरंभो संकष्पो, परितापकरो भवे समारंभो । प्रारंभ उद्दवतो, शुद्ध नयाणं तु सव्वेसि ॥
SR No.022534
Book TitleTattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tika Tatha Hindi Vivechanamrut Part 05 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaysushilsuri
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1998
Total Pages264
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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