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श्री तत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
[ ५।४३
धर्मास्तिकाय के असंख्य प्रदेशवत्व, लोकाकाशव्यापित्व, गति अपेक्षाकारणत्व, तथा अगुरुलघुत्व इत्यादि ।
धर्मास्तिकाय के असंख्य प्रदेशवत्व, लोकाकाशव्यापित्व, स्थिति अपेक्षाकाररणत्व, तथा अगुरुलघुत्व इत्यादि ।
आकाश के अनन्तप्रदेशवत्व तथा अवगाह देना इत्यादि । जीव के जीवत्व इत्यादि । तथा काल के वर्तनादि परिणाम अनादि हैं ।
जगत्
इन परिणामों से कोई अमुक-काल उत्पन्न हुआ ऐसा नहीं होता है । किन्तु जबसे में द्रव्य हैं तब से ही है ।
उसका निष्कर्ष यह आया है कि - विश्व अनादि है, तो द्रव्य अनादि हैं। इसलिए उसके परिणाम भी अनादि हैं ।। ५-४२ ।।
* श्रादिमान - परिणामम्
5 मूलसूत्रम् -
रूपिण्वादिमान् ॥ ५-४३ ॥
* सुबोधिका टीका
येषु रूप-रस- गन्ध-स्पर्शादि प्राप्यन्ते ते रूपीति । रूपिषु तु द्रव्येषु श्रादिमान् परिणामोऽनेकविधः स्पर्शपरिणामादिरिति । स्पर्शस्याष्टभेदाः, रसस्य पञ्चभेदाः, द्वौ भेद गन्धस्य, पञ्चविधः वर्णश्चेति वर्णितं पूर्वमेव ।। ५-४३ ।।
* सूत्रार्थ - रूपी पदार्थों के परिणाम प्रादिमान हुआ करते हैं । रूपी धर्म, अधर्म, आकाश, जीव और काल के परिणाम अनादि हैं । अर्थात्-रूपी द्रव्य श्रादिमान परिणाम वाले होते हैं ।। ५-४३ ।।
5 विवेचनामृत 5
रूपी द्रव्यों में प्रादिमान परिणाम होते हैं । पुद्गल रूपी द्रव्य है । उसमें रहे हुए श्वेत रूप आदि परिणाम आदिमान हैं। क्योंकि, उसमें प्रतिक्षणरूप आदि का परिवर्तन होता है ।
विवक्षित समय में हुए परिणाम पूर्व समय में नहीं होने से आदिमान हैं । प्रवाह की अपेक्षा तोरूपी द्रव्यों में भी अनादि परिणाम हैं । रूपी द्रव्यों में श्रादिमान परिणाम का कथन व्यक्ति की अपेक्षा है । रूपी पुद्गल द्रव्य प्रादिमान ( सादि) परिणाम वाले होते हैं । उनके अनेक भेद हैं। जैसे - स्पर्शपरिणाम, रसपरिणाम, गन्धपरिणाम इत्यादि ।