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________________ १४२ ] पञ्चमोऽध्यायः द्वयणक तथा व्यणुकादि किसी भी अवस्था में हो और भिन्न अवस्था में वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श आदि पर्याय भी परिवर्तित हुआ करते हैं; तो भी वह अपने जड़त्व, मूत्तित्व स्वभाव का परित्याग नहीं करता है। इस तरह प्रत्येक द्रव्य की अपने द्रव्यत्व और गुणत्व से च्यूत नहीं होते हए भी पर्याय परिवर्तनशील अवस्था को परिणाम कहते हैं। पुद्गल के द्वयणुक, त्र्यणुक, चतुरणुक इत्यादि अनन्त परिणाम हैं। उन सर्व में पुद्गलत्व (पुद्गल जाति) कायम रहते हैं। रूप इत्यादि गुण के श्वेत तथा नील इत्यादि अनेक परिणाम हैं। वे सर्व में रूपत्व इत्यादि कायम रहते हैं। इस तरह धर्मास्तिकाय इत्यादि द्रव्य विष भी समझना ।। ५-४१ ।। * परिणामस्य द्वौ भेदौ * 卐 मूलसूत्रम् प्रनादिरादिमांश्च ॥ ५-४२॥ * सुबोधिका टीका * धर्माधर्माकाशपुद्गलजीवकालानां द्रव्याणां चतुर्णा प्ररूपीद्रव्याणां परिणामः अनादीति । अर्थात् तत्रानादि-रूपेषु धर्माधर्माकाशादिषु इति । रूपी-मूर्तानां पदार्थानां परिणामानादि इति उच्यते ॥ ५-४२ ।। * सूत्रार्थ-ये परिणाम अनादि और प्रादि दो प्रकार के हुमा करते हैं। अर्थात्-परिणाम के दो भेद हैं। अनादि और प्रादिमान ।। ५.४२ ॥ विवेचनामृत ॥ परिणाम अनादि और आदिमान (नूतन बनता) दो प्रकार के हैं। जिस काल की पूर्वकोटी जानी न जाय उसको अनादि कहते हैं, तथा जिसकी पूर्वकोटी जानी जाय उसको प्राविमान काल कहते हैं। जिसकी प्रादि नहीं, अर्थात् अमुक काले प्रारम्भ-शुरुआत हुई इस तरह जिसके लिए न कहा जा सकेगा वह अनादि है। तथा जिसकी आदि है, अर्थात् अमुक काले प्रारम्भशुरुआत हुई, इस तरह जिसके लिए कहा जा सके वह मादिमान काल है। परिणामी स्वभाव के दो भेद हैं। एक अनादि परिणामी स्वभाव, और दूसरा आदिमान परिणामी स्वभाव। जिसमें अरूपी द्रव्य (धर्माधर्माकाश-जीव) अनादि परिणाम वाले होते हैं । किन्तु जीवों में उक्त दोनों भेद पाये जाते हैं । उक्त कथन का सारांश यह है कि-द्रव्यों के रूपी और प्ररूपी इस तरह दो भेद हैं। उसमें अरूपी द्रव्यों के परिणाम अनादि हैं।
SR No.022534
Book TitleTattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tika Tatha Hindi Vivechanamrut Part 05 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaysushilsuri
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1998
Total Pages264
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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