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३।५ ] तृतीयोऽध्यायः
[ १७ हैं, उतनी ही अधिक भूख अग्नि-पाग के समान जाज्वल्यमान होती जाती है। सर्व भक्षण से भी भूख शान्त नहीं होती, अपितु और भी बढ़ती जाती है। इसी तरह तृषा-प्यास का भी भयंकर दुःख है। तृषा इतनी लगती है कि, चाहे जितना ही जल-पानी पिया जाय तो भी जीव-आत्मा को तृप्ति नहीं होती। इससे भी अधिक दुःख उन्हें परस्पर वैरभाव से पैदा-उत्पन्न होता है। जैसे-सर्प और नौलिये (नेवला) के या बिल्ली और चूहे के जन्म से ही वैरभाव होता है, वैसे ही यहाँ पर भी
रकी जीवों के वैर-भाव होते हैं। इसलिए वे एक-दूसरे को देखकर श्वान-कुत्तों की माफिक परस्पर-लड़ते हैं, काटते हैं और क्रोध से अति जलते हैं। एवं मारण, ताड़न, अभिघातादि के द्वारा अति दुःख दिया करते हैं। इसीलिए वे परस्पर-जनित दुःख वाले कहे गये हैं।
उन नरकों में दो प्रकार के जीव-प्राणी पाये जाते हैं। एक हैं मिथ्यादृष्टि और दूसरे हैं सम्यगदृष्टि। मिथ्यादृष्टि जीवों की संख्या बहत ही अधिक है, तथा सम्यगदृष्टि जीवों की संख्या अति अल्प है। मिथ्यादृष्टियों में भवप्रत्यय विभंग पाया जाता है और सम्यग्दृष्टियों में अवधिज्ञान रहा करता है।
पूर्वभव के वैरी दो जीव एक ही स्थान में उत्पन्न हुए हों तो क्षेत्रानुभवजनित शस्त्रों से परस्पर युद्ध करते हैं। अरे! वैरी न होते हुए भी यह मेरा पूर्व भव का वैरी-शत्रु है ऐसा असत्य समझ कर भी शस्त्रों से युद्ध करते हैं। परस्पर यूद्ध भी मिथ्याष्टिवंत नारक ही करते हैं, सम्यग्दृष्टिवंत नारक नहीं। वे तो समता भाव से सहन करते हैं। दूसरों के उदीरित दुःखों को सहते हुए अपने प्रायुष्य की पूर्णता की अपेक्षा किया करते हैं, और अपने पूर्वजन्म के आचरण का विचार भी किया करते हैं।
उन नारक जीवों के भी अवधिज्ञान या विभंगज्ञान के द्वारा दूर ही से परस्पर देखकर तीव्र परिणाम रूप क्रोध उत्पन्न होता है। जो कि भव के निमित्त से ही जन्य है और जिसका फल अतिशय दुःख रूप है। उनके क्रोध उत्पन्न होने के पूर्व ही दुःखों के समुद्घात से पीड़ित हए अन्य नारकी का मन क्रोध रूप अग्नि से प्रज्वलित हो जाता है तब वे अकस्मात् कुत्तों की माफिक प्रा टूटते हैं। भयानक वैक्रिय रूप धारण करके वहीं पर पृथ्वी परिणाम से जन्य और क्षेत्र माहात्म्य से ही उत्पन्न हुए ऐसे लोहमय शल, शिला, मुशल, मुद्गर, बी, तोमर, तलवार, ढाल इत्यादिक आयुधों को लेकर या हाथ-पाँव और दाँतों से एक दूसरे के ऊपर आक्रमण करते हैं तथा एक दूसरे का घात करते हैं। इस प्रकार परस्पर उदीरित दुःखों को नरक के जीवों को सहन करना पड़ता है। (३-४)
* नरकेषु परमाषामीकृत वेदना * 卐 सूत्रम्संक्लिष्टासुरोदीरितदुःखाश्च प्राक् चतुर्थ्याः ॥ ३-५॥
8 सुबोधिका टीका * प्राक् चतुर्थ्याः, अर्थात् प्रथमा-द्वितीया-तृतीयाभूमिषु नारकाणां असुरोदीरितानि