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तृतीयोऽध्यायः (८) दाह-नरक में नारकी जीवों को अपने देह-शरीर में सर्वदा दाह-बलतरा रहा करता है।
(E) भय-नरक में नारकी जीव अपने अवधिज्ञान या विभंगज्ञान से आगामी दुःख को जानने से नित्य भयभीत रहते हैं। तदुपरान्त परमाधामी और अन्य नारकियों का भी भय रहता है।
(१०) शोक-नरक में रहे हुए जीव अपने दुःख, भय आदि के कारण सदा शोकातुर रहते हैं।
इस तरह क्षेत्रकृत उष्णादि दस प्रकार की वेदना का सारांश जानना।
(५) अशुभ विक्रिया-नरक में नारकी जीवों की क्रिया भी उत्तरोत्तर अधिक-अधिक अशुभ होती है। वे दुःख से आकुल-व्याकुल होकर छूटने का यत्न-प्रयत्न करते हैं, किन्तु वह उनके लिए विशेष दुःखदायी होता है, तथा वैक्रिय लब्धि से शुभ बनाने की इच्छा करते हैं, तो भी उनका बनाया हुअा अशुभ ही होता है। अर्थात्-नारकियों का भवधारक शरीर तो हुण्डक संस्थानादि के कारण
ही होता है, किन्तु विक्रिया के द्वारा होने वाला उत्तर वक्रिय शरीर भी अशुभतर ही हमा करता है। क्योंकि उनके वैसे ही नामकर्म का उदय है और वहाँ के क्षेत्र का माहात्म्य भी इसी प्रकार का होता है।
* प्रश्न–लेश्यादि अशुभ भावों को नित्य कहने का क्या प्रयोजन है ?
उत्तर-नित्य का अर्थ निरन्तर है। गति, जाति, शरीर और अंगोपांग नामकर्म के उदय से नरकगति में लेश्यादि भाव जीवन्त-पर्यन्त अशुभ ही होते हैं। क्षणमात्र भी किसी समय अन्तर पड़ता नहीं है। ये परिणाम पल भर के लिए भी शूभ भाव को प्राप्त नहीं होते हैं । ३-३ ॥
* नरकेषु परस्परोदीरित-वेदना *
म मूलसूत्रम्
परस्परोदीरितदुःखाः ॥ ३-४ ॥
* सुबोधिका टोका * पूर्वोक्त षु नरकेषु परस्परोदीरितानि दुःखानि नारकाणां भवन्ति । क्षेत्रस्वभावजनिताञ्चाशुभात् पुद्गलपरिणामादित्यर्थः। नरकेषु द्विविधाः जीवाः प्राप्यन्ते । एषु प्राद्यः मिथ्यादृष्टि: द्वितीयश्च सम्यग्दृष्टिः । मिथ्यादृष्टीनां संख्याः विशेषाधिकाः सम्यग्दृष्टीनाञ्च संख्याः अत्यल्पाः सन्ति । मिथ्यादृष्टिवता भवप्रत्ययविभङ्गः प्राप्यते, सम्यग्दृष्टिवताचावधिज्ञानम् । विभङ्गनिमित्तेन विपरीतं भावमुत्पद्यते । प्रतः