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श्रीतस्वार्थाधिगमसूत्रे'
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वह नारकी यह जाने कि यह कोई बिना गरमी वाला और शीतल पवन वाला स्थान है और उसे वहाँ नींद आ जाती है । नरक की उष्ण वेदना के विषय में शास्त्रकारों ने यह बात उपर्युक्त उपमा से प्रति सुन्दर समझाई है ।
( २ ) शीतवेदना - नरक में रहने वाले जीव- ग्रात्मा द्वारा सहन की जाने वाली प्रतिशीतवेदना का संक्षिप्त वर्णन शास्त्रकारों ने उपमा से प्रति सुन्दर समझाने के लिए कहा है कि पौष या माघ -महा मास में जिसके शरीर से तुषार-बर्फ चारों तरफ लिपटी हुई हो, रात्रि में प्रति समय बढ़ती हुई ठण्डी हवा चल रही हो, हृदय हाथ पैर प्रोष्ठ और दाँत इत्यादि कँपने लगते हों, आकाश बादल रहित हो, चारों तरफ जरा भी अग्नि न हो, तथा स्थान खुला हो एवं देह भी वस्त्र से रहित हो । ऐसे समय में उस मनुष्य को जैसा शीतवेदना सम्बन्धी अशुभ दुःख हो सकता है, उससे भी अनन्तगुणा अधिक दुःख-कष्ट शीतवेदना वाले नारकी को हुआ करता है। इसे अमुक समय तक ही नहीं, किन्तु निरन्तर नित्य ऐसी शीत वेदना सहन करनी पड़ती है । ऐसी असह्य सख्त शीतवेदना का अनुभव करने वाले उस नारकी जीव को वहाँ से उठा कर यहाँ मनुष्यलोक में पूर्व में कहे हुए स्थल में लाकर छोड़ा जाय तो वह जाने कि मैं ठण्डी और पवन बिना के स्थान में हूँ, ऐसा समझ कर वह घसघसाट नींद लेता हुआ ऊँघ जाता है ।
पहली, दूसरी और तीसरी नरक में उष्णवेदना होती है। चौथी नरक में अधिक नारकों को उष्णवेदना तथा अल्प नारकों को शीतवेदना होती है । पाँचवीं नरक भूमि में अधिक नारकों को शीतवेदना तथा अल्प नारकों को उष्णवेदना होती है । इससे यह जानना कि चौथीपाँचवीं नरक में दोनों प्रकार की वेदना होती है। तथा छठी और सातवीं नरकभूमि में शीतवेदना होती है।
(३) क्षुधावेदना - नरक में रहे हुए नारकी जीवों को इतनी क्षुधा भूख लगती है कि विश्व में रहे हुए सर्वस्व अनाज का भक्षण कर जाय अर्थात् खा जाय, घृत घी के अनेक समुद्रों को खाली कर दे, दूध के समुद्र पी जाय, यावत् विश्व के समस्त पुद्गलों का भक्षरण कर जाय तो भी उनकी क्षुधा भूख नहीं शमित होती । इतना ही नहीं किन्तु अधिकाधिक वृद्धि पामती है ।
(४) तृषावेदना - नरक में रहे हुए नारकी जीवों की तृषा भी सख्त होती है । विश्व के समस्त समुद्रों का जल पानी पी जाय तो भी उनकी तृषा शान्त नहीं होती है। नित्य होठ सूखे हुए रहते हैं, तथा कण्ठ- गले में भी शोष ही रहा करता है ।
(५) खरगज - नरक में नारकी जीवों को अपना शरीर छुरी से खणे - खजवाले तो भी न मिटे ऐसी प्रति तीव्र खरगज निरन्तर ही रहा करती है ।
(६) पराधीनता - नरक में नारकों जीवों को नित्य परमाधामियों के वश में रहना
पड़ता है ।
(७) ज्वर - मनुष्यलोक में मानव को अधिक से अधिक जितना ज्वर ( ताव - बुखार) प्राता है, उससे भी अनन्त गुणा ज्वर-ताव नरक में नारकी जीवों को होता है ।