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तृतीयोऽध्यायः
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विवेचनामृत विश्व में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र इन तीनों का त्रिवेणी संगम ही मोक्ष का मार्ग है तथा जोवादिक तत्त्वों की श्रद्धा ही सम्यग्दर्शन है। सत्य तत्त्वों के बोध के लिए जीवादिक तत्त्वों का निरूपण अवश्य ही करना चाहिए। इसलिए ही सूत्रकार महर्षि ने इस तत्त्वार्थाधिगम सूत्र के दूसरे अध्याय में भिन्न-भिन्न दृष्टियों से जीवतत्त्व का निरूपण किया था। अब इस तीसरे अध्याय में चारों गतियों में से सर्वप्रथम नारक जीवों के वर्णन का प्रारम्भ कर
(१) रत्नप्रभा, (२) शर्कराप्रभा, (३) वालुकाप्रभा, (४) पंकप्रभा, (५) धूमप्रभा, (६) तमःप्रभा और (७) महातमःप्रभा। ये सात भूमियाँ-पृथ्वियाँ हैं। क्रमश: वे एक-एक के नीचे आई हैं और पुनः क्रमशः विशेष-विशेष पहोली हैं। ये सातों पृथ्वियाँ अधोलोक में घनाम्बु, घनवात और आकाश प्रदेशों पर स्थित हैं। इनका प्रतिष्ठान एक के नीचे दूसरी का और दूसरी के नीचे तीसरी का इस क्रम से है। प्रत्येक पृथ्वी तीन-तीन वातवलयों के आधार पर ठहरी हुई हैघनोदधिवलय, घनवातवलय और तनुवात वलय। ये वातवलय भी आकाश के आधार पर हैं तथा आकाश आत्मप्रतिष्ठित है, अर्थात् अपने ही आधार पर है। क्योंकि वह अनन्त है, किन्तु प्रत्येक पृथ्वी के नीचे अन्तराल में जो आकाश है वह अनन्त नहीं है, तो भी असंख्यात कोटाकोटी योजन प्रमाण है। जैसे पहली रत्नप्रभा भूमि के नीचे और दूसरी शर्कराप्रभा भूमि के ऊपर असंख्येय कोटाकोटी योजन प्रमाण आकाश है। इसी प्रकार क्रमशः सातों पृथ्वियों के नीचे समझना चाहिए। यहाँ पर विशेष यह है कि लोक के अन्त में और वातवलयों के भी अनन्तर जो आकाश है, वह अनन्त ही है।
जिस प्रकार यहाँ पहली रत्नप्रभा पृथ्वी के लिए क्रम और विस्तार कहा है, उसी क्रम से सातों ही पृथ्वियों का सन्निवेश लोकस्थिति के अनुसार जानना चाहिए। इन समस्त पृथ्वियों का तिर्यक् विस्तार असंख्यात कोटाकोटी योजन प्रमाण का समझना। विशेष
जिस आकाशप्रदेश में जीव-अजीवादि पदार्थ हैं, उसे लोक कहते हैं, तथा शेष आकाश को अलोक कहा जाता है। समस्त लोक के तीन विभाग कहे गये हैं, जिनके नाम हैं-अधोलोक, मध्यलोक और ऊर्ध्वलोक ।
* जो मेरुपर्वत की समतल भूमि से नौ सौ (९००) योजन नीचे की पृथ्वी है, वहीं से लोक का अधोभाग माना गया है। उसका आकार उलटे हुए सकोरे के समान है तथा ऊपरी भाग संकीर्ण और नीचे अनुक्रम से विस्तार वाला है। मेरुपर्वत की समतल भूमि से नौ सौ योजन नीचे की पृथ्वी तथा नौ सौ योजन ऊपर आकाश, इस प्रकार अठारह सौ (१८००) योजन मध्यलोक कहा जाता है। जिसका आकार झालर के समान बराबर आयाम-विष्कम्भ (लम्बाई-चौड़ाई) वाला है।
__इस मध्यलोक के ऊपरी सम्पूर्ण विभाग को ऊर्ध्वलोक कहते हैं। इसका आकार पखावज (मृदङ्गविशेष) के समान है यानी ऊपर और नीचे संकीर्ण तथा मध्यभाग विस्तार वाला है।