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३६ ] श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
[ ४१७ मनुष्यलोक के बाहर मनुष्यक्षेत्र के विमानों से अर्ध प्रमाण के विमान होते हैं। उन विमानों की किरणें समशीतोष्ण होने से सुखकारी होती हैं। चन्द्र की किरणें भी अत्यन्त शीतल नहीं हैं तथा सूर्य की किरणें भी अत्यन्त उष्ण नहीं हैं, किन्तु चन्द्र और सूर्य उभय की किरणें शीतोष्ण होती हैं ।। ४-१६ ॥
* वैमानिकनिकायस्याधिकारः *
9 मूलसूत्रम्
वैमानिकाः ॥४-१७॥
* सुबोधिका टीका * चतुर्थः देवनिकायः वैमानिकः भवति । विमानेषु येऽपि उत्पद्यन्ते निवसन्ति च ते वैमानिकाः कथ्यन्ते। यद्यपि ज्योतिष्क-देवाः अपि विमानेषु एव उत्पद्यन्ते निवसन्ति च । किन्तु वैमानिकशब्दः समभिरूढनयेन सौधर्मादिस्वर्ग-देवलोकेषु एव रूढः । त्रिविधानि विमानानि । इन्द्रकं श्रेणीबद्धञ्च पुष्पप्रकीर्णकं तृतीयम् । वैमानिकशब्दः निरुक्त्यापि सिद्धः । यथा-यवस्था प्रात्मनः वि-विशेषेण सुकृतिनः मानयन्ति इति विमानानि तेषु भवाः वैमानिकाः । अथवा यत्रस्था परस्परं भोगातिशयं मन्यन्ते इति विमानानि तेषु भवाः वैमानिकाः ।। ४-१७ ।।।
* सूत्रार्थ-चौथे देवनिकाय का नाम वैमानिक है ।। ४-१७ ।।
+ विवेचनामृत यहाँ से वैमानिक देवों का अधिकार प्रारम्भ होता है, इसलिए चतुर्थ निकाय का नाम वैमानिक है। विमानों में उत्पन्न होने वाले अथवा रहने वालों को वैमानिक कहते हैं। अर्थात्वैमानिक देव विमान में उत्पन्न होते हैं, इसलिये वे वैमानिक कहे जाते हैं। वैमानिक नाम पारिभाषिक है। कारण यही है कि ज्योतिष्क देव भी विमानों में उत्पन्न होते हैं।
विशेष-विमान तीन प्रकार के होते हैं। इन्द्रक, श्रेणिबद्ध तथा पुष्पप्रकीर्णक। जो सबके मध्य में है, उसे इन्द्रकविमान कहते हैं। जो पूर्वादिक दिशाओं के क्रम से श्रेणिरूप अर्थात् एक पंक्ति में अवस्थित हैं, उनको श्रेरिणबद्ध विमान कहते हैं। जो बिखरे हुए पुष्पों-फूलों की माफिक अनवस्थितरूप से जहां-तहाँ अवस्थित रहते हैं, उनको पुष्पप्रकीर्णक विमान कहते हैं। इनमें रहने वाले देवों का नाम वैमानिक देव है। यही चतुर्थदेवनिकाय कहा जाता है। मूल में उनके कितने भेद होते हैं, इसका वर्णन अब आगे के सूत्र में कहते हैं ।। ४-१७ ॥