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४।१८ ]
चतुर्थोऽध्यायः
* वैमानिकदेवानां द्वौ भेदौ *
卐 मूलसूत्रम्
कल्पोपपन्नाः कल्पातीताश्च ॥ ४-१८ ॥
* सुबोधिका टीका * वैमानिकाः देवाः द्विविधाः कल्पोपपन्नाः कल्पातीताश्च । इन्द्रादिदशविधकल्पाभिः युक्तः कल्प कथ्यते । सौधर्मस्वर्गात् अच्युतस्वर्गपर्यन्तं कल्पना प्राप्यते । कल्पेषु उत्पन्नाः कल्पोपपन्नाः । ये च कल्पना-रहिताः ते कल्पातीताः । अच्युतस्वर्गोपरि ग्रेवेयकेषु उत्पद्यन्ते ते कल्पातीताः। वैमानिकानां सामान्यतया द्वौ भेदौ भवतः ।। ४-१८ ॥
* सूत्रार्थ-वैमानिक देव दो प्रकार के हैं। एक कल्पोपपन्न और दूसरे कल्पातीत ।। ४-१८ ॥
की विवेचनामृत वैमानिक देवों के दो भेद हैं। कल्पोपपन्न और कल्पातीत । कल्प, प्राचार तथा व्यवहार ये एकार्थवाची शब्द हैं। जिन देवों को श्रीतीर्थकर भगवन्तादि के जन्मकल्याणक इत्यादि शुभ कार्यों में अवश्य ही जाना पड़ता है, वे देव कल्पोपपन्न कहलाते हैं। अथवा जिनमें स्वामी और सेवक इत्यादि न्यूनाधिकपने का व्यवहार होता है वे कल्पोपपन्न कहलाते हैं। तथा जिन देवों को किसी प्रकार का प्राचार और व्यवहार नहीं करना पड़ता है, और जहाँ न स्वामी तथा सेवकादि का भाव होता है एवं सभी सामान्य रूप से रहते हैं, उनको कल्पातीत कहते हैं ।
___ सारांश-पूर्वोक्त इन्द्र इत्यादि दस प्रकार की कल्पना जिनमें पाई जाती है, उनको कल्प कहते हैं। यह कल्पना प्रथम सौधर्मदेवलोक से लेकर बारहवें अच्युत देवलोक पर्यन्त ही पाई जाती है। इनमें उत्पन्न होने वालों को कल्पोपपन्न कहते हैं। इस कल्पना से जो रहित हैं, उनको कल्पातीत कहा जाता है। बारहवें अच्युत देवलोक से ऊपर नौ ग्रैवेयक और पाँच अनुत्तर में जो उत्पन्न होने वाले हैं, उनको कल्पातीत जानना चाहिए। अर्थात्-प्रथम के बारह देवलोकों में कल्प होने से, उनमें उत्पन्न हुए देव कल्पोपपन्न हैं। तथा बाद में नौ ग्रैवेयक एवं पाँच अनुत्तर विमानों में उत्पन्न हुए देव कल्पातीत हैं। भवनपति इत्यादि तीन निकाय के देव तो कल्पोपपन्न ही हैं। क्योंकि वहाँ कल्प हैं।
वैमानिक देवों के इन दो भेदों में से पहले कल्पोपपन्न देवों के कल्पों की अवस्थिति किस तरह से है ? इसका वर्णन करने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं । (४-१८)