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४।१६ ]
चतुर्थोऽध्यायः
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होता है । एक श्वासोच्छवास का एक प्रारण होता है । सात प्राण का एक स्तोक होता है । सात स्तोक का एक लव होता है । ३८ || लव की एक नालिका - घड़ी होती है । दो नालिका का एक मुहूर्त होता है, तथा ३० मुहूर्त्त का एक अहोरात्र होता है ।
काल का व्यवहार मुहूर्त, घड़ी, अहोरात्र, पक्ष, मासादि, अतीत, अनागत, संख्येय, असंख्येय, अनन्तरूप, अनेक प्रकार का है । यह व्यवहार केवल मनुष्यलोक में ही किया जाता है ।। (४-१५)
मूलसूत्रम् -
* मनुष्यलोकस्य बहिर्विभागे ज्योतिष्कस्य स्थिरता
बहिरवस्थिताः ।। ४-१६॥
* सुबोधिका टीका
नृलोकात् मानुषोत्तरपर्वतपर्यन्तं यद् क्षेत्रं तस्माद् बहिः ज्योतिष्काः अवस्थिताः, अवस्थिता इत्यविचारिणः, अवस्थितविमान प्रदेशाः श्रवस्थिताः लेश्याप्रकाशाः सुखशीतोष्ण रश्मयः ।
यत्र ज्योतिष्का विचररणभ्रमणरहिताः इत्यविचारिणः । मनुष्यलोके ज्योतिष्क विमानानां गतिशीलतयोपरागतया वर्णे किन्तु मनुष्यलोकात् बहि उपरागादि श्रसम्भवम् । निष्कम्पात् भवतीति ।। ४-१६ ।।
लेश्यायाः श्रर्थः वर्णः परिवर्तनं जायते । उदयास्तरहितं क्षेत्रं
* सूत्रार्थ - मनुष्यलोक के बाहर सूर्य और चन्द्रमा आदि के विमान अवस्थित - स्थिर हैं ।। ४-१६ ॥
विवेचनामृत
स्थिरज्योतिष्क- नृलोक - मानुषोत्तर पर्वत पर्यन्त जो क्षेत्र हैं, उससे बाहर चन्द्र-सूर्य प्रादि जो ज्योतिष्क विमान हैं, वे अवस्थित स्थिर हैं । उनके विमानों के प्रदेश भी अवस्थित हैं । अर्थात्
न ज्योतिष्क देव ही गमन करते हैं, न उनके विमान हो गमन करते हैं ।
इसलिए उनका प्रकाश
जहाँ जाता है वहाँ सदा प्रकाश रहता है, और जहाँ प्रकाश नहीं जाता है वहाँ सदा अन्धकार ही रहता है। उनकी लेश्या और प्रकाश भी एकरूप से स्थित रहते हैं । अर्थात्-राहु आदि की छाया न पड़ने से उनका स्वाभाविक रंग ही रहता है । उदयास्त भी नहीं होने से उनका प्रकाश भी लक्ष योजन प्रमाण में एकसमान स्थित रूप रहता है ।