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४।१४ ] चतुर्थोऽध्यायः
[ ३१ चन्द्र आदि की परिभ्रमण गति क्रमशः अधिक-अधिक है। चन्द्र की गति सबसे न्यून है। चन्द्र से सूर्य की गति अधिक है। सूर्य से ग्रह को गति अधिक है। ग्रह से नक्षत्र की गति अधिक है तथा नक्षत्र से तारा की गति अधिक है।
__ ऋद्धि के विषय में उक्त क्रम से विपरीत क्रम जानना। जैसे-तारा की ऋद्धि सबसे न्यून है। तारा से नक्षत्र की ऋद्धि विशेष है। नक्षत्र से ग्रह की ऋद्धि विशेष है। ग्रह से सूर्य की ऋद्धि विशेष है और सूर्य से चन्द्र की ऋद्धि विशेष है।
सूर्यादि विमान का प्रमारण
सर्यमण्डल का विष्कम्भ अड़तालीस योजन और एक योजन के साठ भागों में से एक भाग प्रमाण (४८) है। चन्द्रमण्डल का विष्कम्भ छप्पन (५६) योजन है। ग्रहों का विष्कम्भ अर्ध योजन है। नक्षत्रों का विष्कम्भ दो कोस है तथा तारामों में से सबसे बड़े तारे का विष्कम्भ उत्कृष्ट प्रमाण प्राधा कोस और सबसे छोटे तारा का विष्कम्भ जघन्य प्रमाण पाँच सौ धनुष है।
इन मण्डलों के विष्कम्भ का जो प्रमाण कहा है, उससे आधा मोटाई या ऊँचाई का प्रमाण समझना चाहिए। जघन्य स्थिति वाले तारा की लम्बाई-पहोलाई पाँच सौ (५००) धनुष्य की तथा ऊँचाई ढाई सौ (२५०) धनुष्य की होती है।
विमान
लम्बाई-पहोलाई
ऊँचाई
२८ --- योजन
चन्द्र
--- योजन
६१
४८ -- योजन
२४ --- योजन
६१
२ गाउ
१ गाउ
नक्षत्र
१ गाउ
०।। गाउ
तारा .......
। गाउ
गाउ
इस तरह सूर्य इत्यादि सम्पूर्ण ज्योतिष्क देवों का जो प्रमाण यहाँ पर कहा है, वह मनुष्यलोक की अपेक्षा से है। तथा मनुष्यक्षेत्र के बाहर जितने सूर्य हैं, उनमें से प्रत्येक सूर्यमण्डल का विष्कम्भ चौबीस योजन और एक योजन के साठ भागों में से एक भाग प्रमाण (२४) है। इससे प्राधा प्रमाण बाहुल्य का जानना।