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श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
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* सूत्रार्थ-तिर्यंच जीवों के भी उत्कृष्ट तथा जघन्य आयुष्य का प्रमाण मनुष्यों के समान तीन पल्योपम उत्कृष्ट और एक अन्तर्मुहूर्त्त जघन्य है ।। ३-१८ ।।
ॐ विवेचनामृत जिस तरह गर्भज मनुष्यों की उत्कृष्ट स्थिति (जीवन काल) तीन पल्योपम की तथा जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त प्रमाण की है, इसी तरह तिर्यंच जीवों की भी उत्कृष्ट तथा जघन्य स्थिति जाननी। अर्थात्-गर्भज मनुष्यों की भाँति तिर्यच जीवों की उत्कृष्ट स्थिति तीन पल्योपम की है, तथा जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त की है।
* पुनः मनुष्यों की तथा तिर्यञ्चों की स्थिति दो प्रकार की है। (१) एक भवस्थिति और (२) दूसरी कायस्थिति । जो जीव-प्राणी अपने जघन्य या उत्कृष्ट आयुष्य प्रमाण से जीवित रहे, उसे भवस्थिति कहते हैं। और वही जीव-प्राणी अन्य-दूसरी जाति में जन्म नहीं लेकर पुनः पुनः वारंवार उसी-उसी जाति में जन्म-मरण करे, उसको कायस्थिति कहते हैं। अर्थात-एक ही जाति में पुनः पुनः वारंवार पैदा होना-जन्म लेना वह कायस्थिति है। यह स्थिति मनुष्य और तियंच जीवों की बताई है, इसे भवस्थिति कहते हैं। जघन्य कायस्थिति तो मनुष्य जीवों की और तिर्यंच जीवों की भवस्थिति के समान अन्तमुहूर्त की है। किन्तु उत्कृष्ट कायस्थिति मनुष्य जीवों की सात-आठ भव की है। अर्थात्-मनुष्य, मनुष्यजाति में लगातार पुनः पुनः (वारंवार) सात, आठ बार पैदा हो सकता है-जन्म ग्रहण कर सकता है। पश्चात्-पीछे अपनी मनुष्य जाति को छोड़कर अन्य जाति में अवश्य ही जाना पड़ता है।
समस्त तिर्यंच प्राणियों की भवस्थिति तथा कायस्थिति समान नहीं है। इसलिए उनको विशेषरूप से यदि जानना हो, तो वह इस प्रकार नीचे लिखे प्रमाण समझना।
(१) शुद्धपृथ्वीकाय जीवों की उत्कृष्ट भवस्थिति बारह हजार (१२०००) वर्ष प्रमाण की है।
(२) खरपृथ्वीकाय जीवों की उत्कृष्ट भवस्थिति बाईस हजार (२२०००) वर्ष प्रमाण की है।
(३) अप्काय (जलकाय) जीवों की उत्कृष्ट भवस्थिति सात हजार (७०००) हजार वर्ष प्रमाण की है।
(४) वायुकाय जीवों की उत्कृष्ट भवस्थिति तीन हजार (३०००) वर्ष प्रमाण की है।