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________________ आचारांगसूत्र में अहिंसा 299 अध्ययन में कहा गया है- "आवंती केआवंती लोयसि विप्परामुसंति अट्ठाए अणट्ठाए वा एतेसु चे विप्परामुसंति।" यहाँ विप्परामुसंति शब्द का अर्थ हिंसा करना किया गया है। यह हिंसा मारपीट या वैचारिक हिंसा के लिए प्रयुक्त हुई है। आचारांग कहता है कि यह हिंसा ग्रन्थ/बन्धन है, मोह है, मार/मृत्यु है और यह नरक है। हिंसा का यह स्वरूप हिंसक की अपेक्षा से कहा गया है। निग्रंथ हिंसा नहीं करता। बृहत्कल्पसूत्र में क्रोध, मान, माया, लोभ आदि एवं मिथ्यात्व को भावग्रन्थ के 14 प्रकारों में स्थान दिया गया है।" मोहरहित व्यक्ति हिंसा नहीं करता। हिंसा करने का तात्पर्य है कि व्यक्ति में कोई न कोई ऐसा विकार है जिसके कारण वह हिंसा करता है। इसीलिए आचार्य अमृतचन्द्र ने रागादि विकारों के अप्रादुर्भाव को अहिंसा कहा है।12 चित्त में क्रोधादि या रागादि का कोई भी विकार हो अथवा अज्ञान या मिथ्यात्व का दोष हो तो वह हिंसा को जन्म देता है। तत्त्वार्थसूत्र में प्रमत्तयोग को हिंसा का कारण कहा गया है- प्रमत्तयोगात् प्राणव्यपरोपणं हिंसा।"प्रमाद से युक्त जीव असजग होकर प्राणातिपात करता है। जिस प्रकार हिंसा एक ग्रंथ, ग्रंथि या बन्धन है उसी प्रकार वह मोह की सूचक है। मोह में मिथ्यात्व एवं क्रोधादि विकारों का समावेश हो जाता है। हिंसा प्राणी के चित्त को ग्रथित करती है, इसलिए वह ग्रन्थ या ग्रन्थि है। हिंसा मूढता को प्राप्त कराती है, इसलिए मोह है। यह मृत्यु की ओर ले जाती है, इसलिए मार है तथा हिंसा से विपुल वेदना प्राप्त होती है इसलिए यह नरक है। अतः हिंसा चैतसिक स्तर से ही त्याज्य है। हिंसा का त्याग ही अहिंसा का आधार खड़ा करता है। हिंसा के विकार को छोड़ने पर मानव अहिंसक बन सकता है। हिंसा के हैं विभिन्न कारण हिंसा की उत्पत्ति कई कारणों से होती है। कहीं आशंका एवं प्रतिशोध की भावना हिंसा को जन्म देती है। आचारांग में कहा गया है कि कुछ प्राणी ऐसा सोचकर हिंसा करते हैं कि इसने मेरी हिंसा की, अतः मैं इसकी हिंसा करूँगा, यह मेरी हिंसा करता है, अतः मैं इसकी हिंसा करूँगा, यह मेरी हिंसा करेगा, अतः उसके पहले ही मैं इसका हनन कर देता हूँ।" इस प्रकार आशंकाओं एवं प्रतिशोध की भावना के कारण हिंसा का प्रयोग होता है। भय के कारण भी हिंसा होती है। जो भयभीत है वह
SR No.022522
Book TitleJain Dharm Darshan Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2015
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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