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________________ 298 जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन तथा आहारादि से उपचित-अपचित होता है उसी प्रकार वनस्पति भी अनित्य, अशाश्वत एवं चयोपचययुक्त है। मनुष्य जिस प्रकार विपरिणामधर्मा है, उसी प्रकार वनस्पति भी विपरिणाम धर्मा है। आचारांग सूत्र में वनस्पति में चेतना एवं संवेदनशीलता का यह स्वरूप उसके प्रति आत्मवद्भाव उत्पन्न करता है। आचारांगसूत्र में पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि एवं त्रस जीवों के भी संरम्भ, समारम्भ आदि को त्याज्य निरूपित किया गया है, क्योंकि शान्ति एवं सौहार्द के लिए अहिंसा की आवश्यकता सम्पूर्ण मानव जाति एवं समस्त विश्व के प्राणियों को सदा से रही है। हिंसा के स्वरूप-बोधक विभिन्न शब्द हिंसा के लिए आचारांगसूत्र में समारम्भ, क्षण (छण), दण्ड-समारम्भ, शस्त्र आदि शब्दों का प्रयोग हुआ है। पृथ्वीकायिक आदि जीवों की हिंसा के लिए प्रथम अध्ययन में 'समारम्भ' शब्द का प्रयोग हुआ है, यथा- से सयमेव अगणिसत्थं समारंभति, अण्णेहिं वा अगणिसत्थं समारंभावेति, अण्णे वा अगणिसत्थं समारंभमाणे समणुजाणति । यहाँ समारम्भ शब्द हिंसा का वाचक है, जो वैदिक प्रयोग ‘आलभन' से साम्य रखता है। तृतीय अध्ययन के द्वितीय उद्देशक में 'छण' शब्द का प्रयोग हुआ है- सेणछणे, न छणावए, छणतंणाणुजाणति। अर्थात् संयम में जीने वाला प्राणियों की हिंसा न स्वयं करे, न दूसरों से करवाए तथा न हिंसा करने वालों का अनुमोदन करे। 'दण्ड-समारम्भ' शब्द का प्रयोग अष्टम अध्ययन में इस प्रकार हुआ है- तं परिण्णाय मेहावी व सयं एतेहिं कज्जेहिं दंडं समारंभेज्जा, णेवण्णेहिं एतेहिं कज्जेहिं दंडं समारम्भावेज्जा, णेवण्णे एतेहिं कज्जेहिंदंडंसमारंभंते विसमणुजाणेज्जा। मेधावी साधक न तो स्वयं इन कार्यों से षड्जीव निकायों का दण्ड-समारम्भ करे, न दूसरों से इन कार्यों का दण्ड-समारम्भ करवाए तथा न ही दूसरों के दण्ड-समारम्भ करने पर उनका अनुमोदन करे। शस्त्र शब्द का प्रयोग करते हुए कहा गया है- अत्थि सत्यं परेण परं, नत्थि असत्थं परेण परं। अर्थात् शस्त्र एक से बढ़कर एक है, किन्तु अशस्त्रों में कोई अशस्त्र बढ़कर नहीं है। यहाँ शस्त्र शब्द हिंसा का एवं अशस्त्र शब्द अहिंसा का बोधक है। हिंसा के लिए आचारांग में 'विप्परामुस' शब्द का भी प्रयोग हुआ है। उदाहरण के लिए पंचम
SR No.022522
Book TitleJain Dharm Darshan Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2015
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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