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________________ जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन अपनी सुरक्षा के लिए दूसरों की हिंसा करता है । इसके दूसरे पक्ष को देखें तो यह भी सच है कि हिंसा भय को जन्म देती है। दूसरों द्वारा कृत हिंसा हमें भयभीत करती है। इस तरह हिंसा एवं भय एक-दूसरे को उत्पन्न करते रहते हैं। मनुष्य जिजीविषा, प्रशंसा, सम्मान, पूजा, जन्म, मृत्यु, दुःख के प्रतिघात आदि कारणों से भी हिंसा करता है। वह इन कारणों से पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक एवं त्रसकायिक जीवों की हिंसा करता है।” कभी स्वयं हिंसा नहीं करता है तो दूसरे से करवा देता है। यदि स्वयं हिंसा नहीं करता है, दूसरों से भी हिंसा नहीं करवाता है तो हिंसा करने वाले का समर्थन कर देता है। इस प्रकार हिंसा का सम्बन्ध हमारी चैतसिक विचारधारा से है । हमारी विचारधारा एवं चिन्तन प्रक्रिया कैसी है, हमारी अभिवृत्ति एवं संस्कारों की धारा कैसी है, इस पर भी हिंसा का होना या न होना निर्भर करता है। 300 आचारांग के अनुसार पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु एवं वनस्पति भी सजीव हैं। " अतः उनका उपयोग आवश्यकतानुसार ही करना चाहिए। आवश्यकता से अधिक उपयोग उनकी अनावश्यक हिंसा का कारण है । यह पर्यावरण को भी प्रदूषित करता है। आचारांग में कहा गया है कि मनुष्य जीने के लिए तो पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, वनस्पतिकायिक आदि का समारम्भ करता ही है, किन्तु वह इनका समारम्भ अपनी प्रशंसा के लिए भी करता है। प्रशंसा प्राप्त करने के लिए मनुष्य पृथ्वीकायिक एवं अप्कायिक जीवों की हिंसा करते हुए बड़े - बड़े भवन बनाता है। घरों को धोने में आवश्यकता से अधिक जल बहाता है। बड़े-बड़े भोजों का आयोजन कर अथवा जंगल आदि में आग लगाकर तेजस्कायिक की हिंसा करता है। वह वायु को प्रदूषित करके उसकी हिंसा करता है। वनस्पति की हिंसा तो फर्नीचर, कागज, ईंधन, सजावट आदि अनेक निमित्तों से करता ही है, कभी बिना प्रयोजन भी हिंसा करता है। भूमि का बेतहाशा खनन आज पृथ्वी पर संकट खड़ा कर रहा है। पेयजल की इतनी कमी बढ़ रही है कि भावी युद्ध के बादल जल संकट को लेकर मंडराने वाले हैं। सम्मान की अभिलाषा भी पृथ्वीकायिक आदि सभी जीवों के समारम्भ को बढ़ावा देती है। मनुष्य में आज ऑनर किलिंग की कई घटनाएँ देखने को मिलती हैं। अनेक परिवारों में प्रेम सम्बन्धों के कारण कभी कन्या, कभी उसके प्रेमी की तो कभी परिवारजनों की हत्या कर दी जाती है। ये
SR No.022522
Book TitleJain Dharm Darshan Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2015
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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