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श्री तत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् (१८) अल्पारम्भपरित्रहत्वं स्वभावमार्दवार्जवं च मानुषस्य ।
अल्प भारम्भ परिग्रहपणां, स्वाभाविक नम्रता और सरलता (ये मनुष्यायुष्य का आश्रव है)। (१९) निःशीलवतत्वं च सर्वेषाम् ।
शील रहित पणा में सर्व (पूर्वोक्त तीन आयुष्यों का आश्रव है)। (२०) सरागसंयमसंयमासंयमाकामनिर्जराबालतपांसि देवस्य।
सराग संयम, संयमासंयम ( देशविरतिपणा) अकानिर्जरा और बालतप ( अज्ञानतप ) ये देवायु के भाव है। (२१) योगवक्रता विसंवादनं चाशुभस्य नाम्नः ।
मन वचन और काय योग की वक्रता (कुटिलता) तथा विसंवादन (अन्यथा प्ररूपणा, चिन्तन क्रिया वगेरा) ये अशुभ नाम कर्म के आश्रव हैं। (२२)
विपरीतं शुभस्य । ऊपर कहे हुवे से विपरीत (उल्टा) यानी मन, वचन, काय योग की सरलता और यथायोग्य प्ररूपणा ये शुभ नामकर्म का माश्रव हैं। (२३) दर्शनविशुद्धिविनयसंपन्नता शीलवतेष्वनतिचारोऽ
भीक्ष्णं ज्ञानोपयोगसंवेगौ शक्तितस्त्यागतपसी सङ्घसाधुसमाधिवैयावृत्त्यकरणमर्हदाचार्यबहुश्रुतप्रवचनभक्तिरावश्यकापरिहाणिर्मार्गप्रभावना प्रवचन
वत्सलत्वमिति तीर्थकृत्त्वस्य । उत्कृष्ट ( सबसे ज्यादा) दर्शनशुद्धि, विनयसंपन्नता, शीलव्रतों में अनतिचारपणा, निरन्तर (बराबर) ज्ञानोपयोग तथा संवेग