________________
सप्तमोऽध्यायः ( मोक्ष सुख की अभिलाष-मोक्ष साधने का उद्यम ), यथाशक्ति दान और तप, संघ और साधुओं की समाधि और प्रवचन की भक्ति, आवश्यक (प्रतिक्रमण वगेरा जरुरी योग) का करना, शासन प्रभावना और प्रवचन वत्सलता ये तीर्थकर नामकर्म के आश्रव हैं। (२४) परात्मनिन्दाप्रशंसे सदसद्गुणाच्छादनोभावने
च नीचैर्गोत्रस्य । ___ परनिंदा, आत्मप्रशंसा, दूसरे के मौजूद होते गुण का आच्छादन और खुद के न होने पर गुण को प्रगट करना, ये नीचगोत्र के आश्रव हैं। (२५) तद्विपर्ययो नीचैत्यनुत्सेको चोत्तरस्य ।
ऊपर कहे हवे से विपरीत ( उल्टा) यानी आत्मनिंदा, परप्रशंसा, अपने मौजूद होने पर गुण का आच्छादन और दूसरे की मौजूदगी होने पर गुण को प्रगट करना, नम्र वृत्ति का प्रवर्तन और किसी के साथ गर्व नहीं करना, ये उच्चगोत्र का आश्रय है। (२६) विघ्नकरणमन्तरायस्य ।
विघ्न करना ये अन्तराय कर्म का आश्रव है। इस प्रकार से सांपरायिक के आठ प्रकार के जुदे-जुदे आश्रव जानने।
(इति षष्ठोऽध्यायः)
॥ अथ सप्तमोऽध्यायः ॥ (१) हिंसाऽनृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहेभ्यो विरतितम् ।
हिंसा, असत्य भाषण, चौरी, मैथुन और परिग्रह से विरमना वह व्रत है। यानी अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्म वर्य और निष्परिग्रहता ये पाँच व्रत है।