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नवमोऽध्यायः
९३ भार्य देश, उत्तम कुल, निरोगी काया, धर्मश्रवण की सामग्री इत्यादि पाई जा सकती है। लेकिन अनन्तानुबन्धी कषाय मोहनीय के उदय से अभिभूत (पराभूत) जीव को सम्यग दर्शन पाना बहुत मुशकिल ऐसा विचारना वह ।
धर्म स्वाख्यातत्व भावना-दुस्तर संसार समुद्र में से तेरने को वहाण समान श्री वीतराग प्रणीत शुद्ध धर्म पाना बहुत मुश्किल है। ऐसा विचारना वह । (८) मार्गाच्यवननिर्जरार्थं परिषोढव्याः परिषहाः। ___ सम्यग दर्शनादि मोक्ष मार्ग में स्थिर रहने के लिये और निर्जरा के लिये परीसह सहन करने योग्य है। (९) क्षुत्पिपासाशीतोष्णदंशमशकनाग्न्यारतिस्त्रीचर्यानिषद्या
शय्याऽऽक्रोशवधयाचनाऽलाभरोगतृणस्पर्शमलसत्कारपुरस्कारप्रज्ञाऽज्ञानदर्शनानि । ( दर्शन और प्रज्ञा ये दो मार्ग में स्थिर रहने के लिए और बाकी के २० निर्जरा के लिये जानना-समयसार प्रकरण में)
१ क्षुधा (भूख) परिसह, २ पिपासा (तृषा) परीसह, ३ शीत (ठंड)परिसह,४ उष्ण (गरमी) परिसह, ५ दश मशक (डाँस मच्छर) परिसह, ६ नागन्य (जूने मैले कपडे) परिसह, ७ अरति-संयम में उद्वग न हो परिसह, ८ वी परिसह, १ चर्या (विहार) परिसह, १० निषद्या (स्वाध्याय की भूमि) परिसह, ११ शय्या परिसह, १२ आक्रोश परिसह, १३ वध परिसह, १४ याचना परिसह, १५ अलाभ परिसह. १६ रोग परिसह, १७ तृण स्पर्श परिसह, १८ मल परिसह, १९ सत्कार परिसह, २० प्रज्ञा परिसह, २१ अज्ञान परिसह और २२ मिथ्यात्व परिसह ये बाईस प्रकार के परीसह जानने ।