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श्री तत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् होती है स्त्री मरकर माता होती है, पिता मरकर पुत्र होता है, पुत्र मरकर पिता होता हे इस तरह संसार की विचित्रता की भावना करनी वह। ___ एकत्व भावना-जीव अकेला ही उत्पन्न हुवा है और अकेला ही मृत्यु पाता है; अकेला ही कर्म बांधता है और अकेला ही कर्म भुगतता है इत्यादि सोचना वह ।
अन्यत्व भावना- मैं शरीर से भिन्न हूँ; शरीर अनित्य है, मैं नित्य हूँ, शरीर जड है, मैं चेतन हूँ, इस तरह सोचना वह । __ अशुचि भावना-निश्चय करके यह शरीर अपवित्र है, क्योंकि इस शरीर का आदि कारण शुक्र-लोही है, जो बहुत अपवित्र है, पीछे के कारण आहारादिक का परिणाम वह भी अत्यन्त अपवित्र है, नगर के स्वाल की तरह पुरुष के नव द्वार में से और स्त्री के बारा द्वार में से निरन्तर अशुचि बहा करती है ऐसा विचारना वह ।
आश्रव भावना-मिथ्यात्वादि से कर्म का आना होता है, इससे आत्मा मलीन होती है दया दानादि से शुभ कर्म बंधाते है। विषय कषायादि से अशुभ कर्म बन्धाते हैं ऐसा विचारना वह ।।
संवर भावना-समिति-गुप्ति आदि पालने से आश्रव का रोध (रुकना होता है ) ऐसा विचारना वह ।
निर्जरा भावना-बारा प्रकार के तप से वर्म का क्षय होता है। ऐसा विचारना वह । __लोकस्वभाव भावना-कमर पर हाथ देकर पैर फैला कर खड़े हुवे पुरुष के आकार से धर्मास्तिकायादि द्रव्यात्मक चौदह राजलोक, उत्पत्ति, स्थिति और लय का स्वभाव वाला है, इत्यादि स्वरूप विचारना वह।
बोधि दुर्लभ भावना-इस अनादि संसार में नरकादि गति में भ्रमण करते अकाम निर्जरा से पुण्य के उदय से मनुष्य जन्म,