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क्या है? आधार का निश्चय हुए बिना कोई भी आचार-संहिता नहीं बन सकती। जैन आचार के आधारभूत तत्त्व ये चार वाद हैं
1. आत्मवाद, 2. लोकवाद, 3. कर्मवाद,
4. क्रियावाद। 1. आत्मवाद
जैन दर्शन की आचार-मीमांसा का प्रथम आधार है-आत्मा। आत्मा का त्रैकालिक अस्तित्व है। उसका अस्तित्व अतीत में था, वर्तमान में है और भविष्य में रहेगा। जिसे आत्मा का ज्ञान नहीं होता वह जैन आचार को भी समझ नहीं सकता। जैन दर्शन के अनुसार आत्मा एक अमूर्त तत्त्व है। हर व्यक्ति उसे देख नहीं पाता। इसीलिए बहुत सारे व्यक्ति ऐसे होते हैं, जिन्हें यह ज्ञान नहीं होता कि मैं कौन हूँ, इस जन्म से पूर्व मैं कहाँ था और यहां से मरकर मैं कहाँ जाऊँगा? अनात्मवादियों के अनुसार हमारा अस्तित्व वर्तमान तक ही सीमित है। अतः उनका आचार केवल वर्तमानिक होता है। वर्तमान जीवन, सामाजिक जीवन, सुख-सुविधा से चल सके, उसी को लक्ष्य में रखकर उनकी आचार-संहिता का निर्माण होता है। जहां आत्मा का त्रैकालिक अस्तित्व मान्य होता है, वहां आचार की शुद्धि पर विशेष बल दिया जाता है। आत्मा के शुद्ध स्वरूप की प्राप्ति के लिए उन्नत आचार का पालन किया जाता है, अतः आत्मा के त्रैकालिक अस्तित्व की स्वीकृति उन्नत आचार की पृष्ठभूमि है, आधारशिला है। 2. लोकवाद
. जैन दर्शन द्वैतवादी दर्शन है। वह आत्मा और पुद्गल इन दो तत्त्वों के स्वतंत्र अस्तित्व को स्वीकार करता है। लोक का अर्थ