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है-पुद्गल। लोक्यते इति लोकः के अनुसार जो दिखाई देता है, वह लोक है। पुद्गल दिखाई देता है इसलिए उसे लोक कहा गया है। जो आत्मा को जान लेता है वह लोक (पुद्गल) को जान लेता है। निष्कर्ष की भाषा में आत्मा और पुद्गल-दोनों का स्वतन्त्र अस्तित्व है। यदि केवल आत्मा होती तो उसके संसार-परिभ्रमण का कोई कारण नहीं रहता और केवल पुद्गल होता तो भी परिभ्रमण का कोई कारण नहीं रहता, अतः दोनों का अस्तित्व है। . 3. कर्मवाद
जैन दर्शन की आचार-मीमांसा का तीसरा आधार है-कर्मवाद। संसारी अवस्था में आत्मा कर्म से बद्ध है। इसी कर्म के कारण अनादि काल से बार-बार उसका संसार में परिभ्रमण हो रहा है, जन्म-मरण हो रहा है। जन्म-मरण की परम्परा से मुक्त होने के लिए कर्म से मुक्त होना आवश्यक है। 4. क्रियावाद .. आत्मा और कर्म का संबंध क्रिया (आश्रव) के द्वारा होता है। जब तक आत्मा में राग-द्वेषजनित प्रकम्पन विद्यमान हैं, तब तक उसका कर्म-परमाणुओं के साथ संबंध होता रहता है।
आचार्य महाप्रज्ञ के अनुसार ये चारों वाद सम्पूर्ण जैन आचारशास्त्र के आधार हैं। संसारी अवस्था में आत्मा और कर्म का संबंध रहता है। संबंध का कारण है-क्रिया। अक्रिय अवस्था में कोई संबंध स्थापित नहीं होता। जैसे-जैसे कषाय क्षीण होता है, अक्रिया की स्थिति आने लगती है, आत्मा और कर्म का संबंध क्षीण होने लगता है। पूर्ण अक्रिया की स्थिति आने पर सारे संबंध नष्ट हो जाते हैं। आचारशास्त्र के निरूपण और पालन के पीछे मूल उद्देश्य कर्म- बंधन से मुक्त हो आत्मा के शुद्ध स्वरूप को प्राप्त करना है।