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आचार की पृष्ठभूमि ज्ञान
जैन दर्शन के अनुसार आचार की पृष्ठभूमि है-ज्ञान। दशवैकालिक सूत्र में कहा गया-'पढमं नाणं तओ दया' पहले जानो फिर उसका आचरण करो। भगवान महावीर के आचार-शास्त्र का सूत्र है 'ज्ञानं प्रथमो धर्म:'। ज्ञान के बिना आचार का निर्धारण नहीं हो सकता। ज्ञानी मनुष्य ही आचार और अनाचार का विवेक कर सकता है। अनाचार को छोड़कर आचार का पालन कर सकता है। सूत्रकृतांग सूत्र में भी बुज्झेज्ज तिउट्टेज्जा के माध्यम से यही तथ्य प्रतिपादित किया गया है-पहले बंधन को जानो। बंधन क्या है? उसके हेतु क्या हैं? उसे तोड़ने के उपाय क्या हैं? इन सबको जानने के बाद ही बंधन को तोड़ने की दिशा में पुरुषार्थ किया जा सकता है।
अज्ञानी व्यक्ति हेय-उपादेय को जानता ही नहीं, बंधन-मोक्ष को जानता ही नहीं तो वह उसे छोड़ने और तोड़ने की दिशा में पुरुषार्थ नहीं कर सकता। धर्म-अधर्म, नैतिक-अनैतिक, श्रेय-अश्रेय के बीच
भ्रेदरेखा खींचने वाला तत्त्व है- ज्ञान। ... भगवान महावीर ने ज्ञान पर ही बल नहीं दिया। अपितु ज्ञान
के सार की खोज की। 'णाणस्स सारमायारो' ज्ञान का सार आचार है। आचार के अभाव में ज्ञान अधूरा है। जैसा कि कहा भी गया है-ज्ञान के बिना आचरण पंगु है और आचरण के बिना ज्ञान अंधा है। व्यक्ति चाहे कितना ही ज्ञानी क्यों न हो किन्तु जब तक वह ज्ञान आचरण में नहीं उतरता तब तक ज्ञान की उज्ज्वलता प्रकट नहीं हो सकती। इसलिए जैन शास्त्रों का यह उद्घोष है-ज्ञान का सार आचार है। बैन आचार का आधार
कोई भी क्रिया की जाती है तो एक प्रश्न उपस्थित होता है कि यह क्रिया क्यों की जा रही है? इसका हेतु क्या है? आधार