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. 1. उपयोगमय स्वरूप-आत्मा का स्वरूप उपयोग है। ज्ञान और दर्शन उपयोग कहलाता है। आत्मा जिसके द्वारा जानता है, उसे ज्ञान उपयोग तथा जिसके द्वारा देखता है, उसे दर्शन उपयोग कहा जाता है। ज्ञान का अर्थ विशेष बोध और दर्शन का अर्थ सामान्य बोध है। मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान और केवलज्ञान-ये ज्ञानोपयोग हैं। चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन-ये चार दर्शनोपयोग हैं। एकेन्द्रिय जीवों से लेकर सिद्धों तक में यह ज्ञान
और दर्शन कम या अधिक रूप में पाया जाता है। ज्ञान-दर्शन का पूर्ण विकास केवलज्ञानी और सिद्धों में होता है।
2. अमूर्त स्वरूप-जैन दर्शन में आत्मा को अमूर्त माना गया है। आत्मा के शुद्ध स्वरूप की दृष्टि से उसमें पुद्गल के गुण स्पर्श, रूंप, रस, गंध आदि नहीं होते, इसलिए वह अमूर्त हैं। किन्तु संसारी आत्मा कर्मों से बद्ध होने के कारण उसमें रूप, रस, गंध आदि पाए जाते हैं, जिससे उसे कथंचित् मूर्त भी माना जाता है, पर यह मूर्तत्व चेतना का विभाव है, स्वभाव नहीं। अतः आत्मा का शुद्ध स्वरूप अमूर्त है।
3. कर्ता स्वरूप-आत्मा शरीर से युक्त है तब तक वह शुभाशुभ कर्मों की कर्ता है। पर वास्तव में शुद्ध आत्मा जड़ कर्मों की कर्ता नहीं अपितु चैतसिक भावों की कर्ता है। .
4. देहपरिमाणत्व स्वरूप-निश्चय नय की दृष्टि से आत्मा का शरीर और आकार नहीं होता किन्तु संसारी आत्मा बिना शरीर के नहीं रह सकती। जैन दर्शन के अनुसार आत्मा देहपरिमाण है। उसे अपने कर्मों के अनुसार जैसा छोटा-बड़ा शरीर मिलता है, वह उसी में व्याप्त हो जाता है। चींटी जैसा छोटा शरीर मिलने पर आत्म-प्रदेश संकुचित और हाथी जैसा मोटा शरीर मिलने पर वे विस्तृत हो जाते हैं। अतः संसारी आत्मा संकोच-विकोच की शक्ति के कारण देह-परिमाण हैं।