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5. भोक्ता स्वरूप- आत्मा कर्मों की कर्त्ता है अतः वह अपने किए कर्मों की भोक्ता भी है। व्यवहार मे संसारी आत्मा सुख-दुःख रूप पुद्गल कर्मों की भोक्ता है और निश्चय में वह अपने चैतन्यात्मक आनन्द स्वरूप की भोक्ता है।
6. संसारी स्वरूप - संसार में अनादिकाल से परिभ्रमण करने वाली आत्मा कर्मों से बद्ध होने के कारण अशुद्ध है। वह पुरुषार्थ के द्वारा कर्मों को नष्ट कर शुद्ध होती है। यदि आत्मा पहले संसारी न होती तो उसकी मुक्ति के उपाय की खोज भी व्यर्थ होती ।
7. सिद्ध स्वरूप - जब तक जीव राग-द्वेषादि विषय विकारों से ग्रसित रहता है, तब तक वह संसारी कहलाता है और जब सम्पूर्ण कर्मों से अपने आपको मुक्त कर लेता है तो वह सिद्ध कहलाता है।
8. ऊर्ध्वगामित्व स्वरूप - आत्मा की स्वाभाविक गति ऊर्ध्वगति है। जैसे दीपक की लौ स्वभाव से ऊपर की ओर जाती है, वैसे ही शुद्ध दशा में आत्मा भी ऊर्ध्वगमन स्वभाव वाली है। हवा से प्रकम्पित दीपक की लौ जैसे टेढ़ी-मेढ़ी हो जाती है, वैसे ही अशुद्ध आत्मा कर्मों की हवा से प्रेरित होकर चारों गतियों में इधर-उधर भ्रमण करती है। कर्मों से मुक्त होते ही ऊर्ध्वगमन स्वभाव के कारण आत्मा सीधे लोक के अग्रभाग में जाकर स्थित हो जाती है।
9. परिणामीनित्यत्व स्वरूप - आत्मा परिणामीनित्य है। परिणामीनित्य से तात्पर्य यह है कि आत्मा न केवल निंत्य, न केवल अनित्य अपितु नित्यानित्य है अर्थात् नित्य भी है, अनित्य भी है। अस्तित्व की दृष्टि से आत्मा का कभी नाश नहीं होता अतः वह नित्य है किन्तु उसमें परिणमन का क्रम कभी समाप्त नहीं होता, हर क्षण परिवर्तन होता रहता है, अतः वह अनित्य है।
इस प्रकार जैन दर्शन में आत्मा का स्वरूप उपयोगमय, अमूर्त्त, कर्त्ता, भोक्ता, देहपरिमाण, ऊर्ध्वगामी, परिणामीनित्य आदि माना गया है।