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जैन आचार्यों ने आत्मा के शुद्ध स्वरूप का विवेचन भावात्मक और निषेधात्मक दोनों दृष्टियों से किया है। भावात्मक पद्धति में उन्होंने बतलाया कि आत्मा क्या है और निषेधात्मक पद्धति में उन्होंने बतलाया कि आत्मा क्या नहीं है।
शुद्धात्म-स्वरूप को बताते हुए आचार्य कुंदकुंद ने कहा-आत्मा निर्ग्रन्थ, वीतराग, निःशल्य और क्रोध, मान, माया, लोभ से रहित है। वह उपयोग स्वरूप, अमूर्त, अनादि-निधन, सत्-चित-आनन्द स्वरूप है। वह अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त आनन्द, अनन्त वीर्य युक्त है। उस शुद्ध आत्मा का शब्दों के द्वारा प्रतिपादन नहीं किया जा सकता। तर्क और बुद्धि के द्वारा उसे ग्रहण नहीं किया जा सकता। उसका न कोई रूप है और न कोई रंग, न कोई गंध है और न कोई स्पर्श। वर्ण, गंध, रस, स्पर्श पुद्गल के लक्षण हैं। आत्मा पुद्गल नहीं है।
प्रश्न होता है आखिर आत्मा है क्या? उसका स्वरूप क्या है? उसका कार्य क्या है? इस सन्दर्भ में उसकी विधायक परिभाषा देते हुए कहा गया-शुद्धात्मा केवल ज्ञाता है। वह सर्वतः चैतन्यमय है। उसे बताने के लिए कोई उपमा नहीं है। वह अरूपी सत्ता है। उसका बोध कराने वाला कोई पद नहीं है। वह अज्ञेय, अदृश्य और . निरुपमेय है।
द्रव्य-संग्रह में आत्मा के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए कहा गया
जीवो उवओगमओ अमत्ति कत्ता सदेहपरिमाणो।
भोत्ता संसारत्थो सिद्धो सोविस्स सोड्ढगई।।
आत्मा उपयोगमय है, अमूर्त है, कर्ता है, देह-परिमाणी है, भोक्ता है, संसार में स्थित है, सिद्ध है और स्वभाव से ऊर्ध्वगमन करने वाला है। ..---