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4. गुणस्थान
जैन दर्शन का मुख्य लक्ष्य है-आत्मगुणों का विकास करना। यह विकास सब जीवों में समान नहीं होता। सबमें अलग-अलग होता है। किसी में कम होता है और किसी में ज्यादा। न्यूनाधिक विकास के आधार पर इसकी चौदह अवस्थाएँ बनती हैं। ये आत्म-विकास के चौदह सोपान हैं। इन चौदह सोपनों पर क्रमशः चढ़ते-चढ़ते जब व्यक्ति अन्तिम सोपान को भी पार कर लेता है तो वह अपने आत्म-गुणों का पूर्ण विकास कर मोक्ष को प्राप्त कर लेता है। ये चौदह सोपान ही चौदह गुणस्थान हैं। गुणस्थान की परिभाषा
गुणस्थान की अवधारणा का मुख्य आधार है-कर्म-विशोधि। गुणस्थान में दो शब्द हैं-गुण और स्थान। गुण से तात्पर्य आत्मिक गुणों से है तथा स्थान से तात्पर्य उनके क्रमिक विकास से है। इस प्रकार आत्मा की क्रमिक विशुद्धि को गुणस्थान कहते हैं। गुणस्थान को जीवस्थान भी कहा जाता है। जैन दर्शन के अनुसार जीव एक द्रव्य है और जो द्रव्य होता है, वह गुण से रहित नहीं होता अतः जीव द्रव्य भी ज्ञान, दर्शन आदि गुणों से युक्त है। संसारी अवस्था में कर्मावरण के कारण वे गुण आवरणित हो जाते हैं, जिससे जीव में दोष भी प्रकट हो जाते हैं, किन्तु वे कर्म जीव के गुणों को पूर्ण रूप से आवरणित नहीं कर पाते अतः जीव में कुछ गुण भी प्रकट रहते हैं। इस प्रकार संसारी अवस्था में आत्मा गुणयुक्त भी है और कर्मावरण के कारण दोषयुक्त भी है। जैसे-जैसे कर्मों का शोधन होता है, वैसे-वैसे आत्मगुणों का विकास होता है। यह आत्मगुणों का क्रमिक विकास ही गुणस्थान है। गुणस्थान के भेद
आत्मिक गुणों के न्यूनतम विकास से लेकर सम्पूर्ण विकास की