________________
107
समस्त भूमिका
गुणों का विकास
यह विकास आत्मा का
समस्त भूमिकाओं को जैन दर्शन में चौदह भागों में बांटा गया है। पहली भूमिका में आत्मगुणों का विकास न्यूनतम होता है और अन्तिम भूमिका में उसका पूर्ण विकास हो जाता है। यह विकास आत्मा की निर्मलता-पवित्रता पर निर्भर करता है। आत्मा की निर्मलता से गुणस्थान क्रमशः ऊँचे होते जाते हैं और मलिनता से नीचे। संसार के समस्त जीव इन चौदह गुणस्थानों में विभाजित हैं। ये आध्यात्मिक विकास क्रम की चौदह अवस्थाएँ हैं
1. मिथ्यादृष्टि गुणस्थान 2. सास्वादन-सम्यक्दृष्टि गुणस्थान 3. मिश्रदृष्टि गुणस्थान 4. अविरत-सम्यक्दृष्टि गुणस्थान 5. देशविरति गुणस्थान 6. प्रमत्तसंयत गुणस्थान 7. अप्रमत्तसंयत गुणस्थान 8. निवृत्तिबादर गुणस्थान १. अनिवृत्तिबादर गुणस्थान 10. सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान 11. उपशांतमोह गुणस्थान 12. क्षीणमोह गुणस्थान 13. सयोगीकेवली गुणस्थान
14. अयोगीकेवली गुणस्थान। 1. मिथ्यादृष्टि गुणस्थान
प्रथम गुणस्थान का नाम दर्शनमोहनीय कर्म के आधार पर मिथ्यादृष्टि रखा गया है। इसमें मोहकर्म की प्रबलतम स्थिति होने के कारण व्यक्ति का दृष्टिकोण ही विपरीत होता है। मिथ्यादृष्टि का अर्थ