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रचना इसी वृत्ति का आधार लेके की है । पू. आ. श्री सोमतिलकसूरिजी की वृत्ति पर पू. आ. श्री. हेमचन्द्रसूरिकृत प्रमाण मीमांसा एवम् पू. आ. श्री मल्लिषेणसूरिकृत स्याद्वादमञ्जरी का प्रभाव नज़र आता है । पहले यही वृत्ति मुद्रक के अनवधान के कारण मणिभद्र कृत वृत्ति के नाम से प्रसिद्ध थी लेकिन फिलहाल यह भ्रमणा गलत सिद्ध हो चूकी है । पू. आ. श्री सोमतिलकसूरिजी ने प्रस्तुत वृत्ति में मूलग्रन्थकर्ता श्री हरिभद्रसूरिजी के हार्द को समुचित रूप से व्यक्त किया है । जैसा कि वृत्तिकार ने अनेकत्र स्पष्ट किया है यह प्रयास बाल जीवो के बोध हेतु है - वृत्तिकार इसमें भी सफल साबित हुए है । अनावश्यक क्लिष्टता एवम् विस्तार वृत्ति में नहीं देखने मिलते । वृत्ति में उद्धृत किये हुए अवतरणो से भी आचार्यश्री के ज्ञान वैभव का भलीभाँति परिचय होता है ।
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सांख्य मत के निरूपण में वृत्तिकार सम्मत गाथा क्रम प्रचलित गाथाक्रम से भिन्न है । हमने प्रस्तुत सम्पादन मे प्रचलित पाठक्रम को स्थान दिया है । हालाँकि ऐसा करने में अवतरण आदि का दुरन्वय होता है फिर भी पाठ संगति के लिए ऐसा करना पसंद किया है ।
अज्ञातकर्तृका अवचूरि: :
षड्दर्शनसमुच्चय को इस अवचूरि में अति संक्षेप में श्लोकों का सामान्यार्थ बताया गया है । इस को देखने से ही पता चलता है कि अवचूरिकार पर पू. आ. श्री सोमतिलकसूरिजी का घनिष्ठ प्रभाव है । आ. श्री राजशेखरसूरिजीकृत षड्दर्शनसमुच्चयः
षड्दर्शन की विचारधारा का बोध पू. आ. श्री हरिभद्रसूरिजी कृत षड्दर्शन समुच्चय से होता है वही षड्दर्शनीओ की आचारधारा का बोध हर्षपुरीयगच्छ के मलधारिश्री राजशेखरसूरिजीकृत 'षड्दर्शनसमुच्चय' से होता है । इनका सत्ता समय वि. सं. १४५० मिलता है । २८० श्लोक प्रमाण यह लघु प्रकरण ग्रन्थ प्रासादिक भाषाशैली से सम्पन्न है । अपने ग्रन्थ में कर्ता ने श्री हरिभद्रसूरिजी कृत षड्दर्शनसमुच्चय से अतिरिक्त तत्त्वो का संग्रह किया है । श्री हरिभद्रसूरिजी कृत षड्दर्शन में प्रत्येक दर्शन के तीन तत्त्वों का निरूपण
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