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प्रारम्भिक ग्रन्थ है और प्रौढ भाषा शैली, प्रामाणिक पदार्थनिरूपण एवम् पक्षपात रहित दृष्टि के कारण विद्वज्जन में अति आदरणीय है । निःशंक यह ग्रन्थकर्ता के विशद शास्त्रबोध, सूक्ष्म विचारप्रज्ञा और श्रेष्ठ संयोजन कुशलता का परिपाक है ।
दार्शनिक ग्रन्थ परम्परा में छह दर्शनो का स्वतन्त्र संग्रह एवम् निरूपण करनेवाली एकमेव कृति षड्दर्शनसमुच्चय है । दर्शन की वार्ताओं का इस तरह संग्रह करने का प्रयास पू. आ. श्री हरिभद्रसूरिजी के पहेले किसी ने नहीं किया । अनुगामी सभी संग्रह ग्रन्थो पर षड्दर्शनसमुच्चय ने गहरा प्रभाव छोड़ा है ।
मूलग्रन्थ का विषय :
प्रमाण- प्रमेय-प्रमिति- एवम् प्रमाता इन चार तत्त्वो का विचार 'दर्शन' है | दर्शनशास्त्र में यह चार शब्दो का विशद विवरण पाया जाता है । इसमें प्रमाण और प्रमेय मुख्य है (प्रमाता का प्रमाण में और प्रमाता का प्रमेय में समावेश हो जाता है) ।
आर्य देश में सभी आत्मवादी दर्शन आत्यन्तिकी दुःखनिवृत्ति के उद्देश्य से प्रवृत्त हुए है । इसी दुःखनिवृत्ति का अपर नाम मुक्ति है । मुक्ति को प्राप्त करने लिए प्रत्येक दर्शन ने उपास्य तत्त्व अंगीकार किया है । (अपवाद चार्वाक दर्शन) । यह उपास्य तत्त्व हो प्रत्येक दर्शन की धरोहर है ।
षड्दर्शनसमुच्चय में प्रत्येक दर्शन के देवता - प्रमेय और प्रमाण तत्त्व का संक्षिप्त निरूपण है ।
श्री सोमतिलकसूरिजीकृत लघुवृत्तिः
इस महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ पे सर्वप्रथम वृत्ति रचने का श्रेयः पू. आचार्यश्री सोमतिलकसूरिजी को मिलता है । 'विद्यातिलक' उनका दूसरा नाम था । गुर्वावली के अनुसार उनका जन्म वि. सं. १३५५, दीक्षा वि. सं. १३६९, आचार्यपद वि. सं. १३५३ और स्वर्गगमन वि. सं. १४२४ में हुआ । पू. आ. श्री गुणरत्नसूरिजी (वि. सं. १४०५ ) ने षड्दर्शनसमुच्चय पर बृहद्वृत्ति की