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॥ ॐ ऐं सरस्वत्यै नमः ॥
सम्पादकीय
'षड्दर्शनसमुच्चय' महागीतार्थ पूज्यपाद आचार्यदेव श्रीमद् हरिभद्रसूरीश्वरजी महाराजा की दार्शनिक प्रतिभा का सर्जन है ।
आचार्यश्री हरिभद्रसूरीश्वरजी म. पूर्वावस्था में ब्राह्मण परम्परा से संलग्न थे । चितौड के राजपुरोहित हरिभद्र चौदह विद्या के पारगामी थे, प्रकाण्ड दार्शनिक पण्डित थे साथ में दर्पोन्नत थे । विद्या के गर्व में उन्होंने मन ही मन प्रतिज्ञा की थी कि 'जिस व्यक्ति के शब्द मेरी समझ में न आये मैं उसका शिष्य बनूँगा' एकबार साध्वीजी के मुख से नीकले हुए शब्द उनकी समझ में न आये और अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार याकिनी नामक साध्वीजी के सन्मुख शिष्य बनने की भावना से उपस्थित हुए । साध्वीजी की प्रेरणा से उन्होंने श्री जिनभट्टसूरिजी के चरणो में जीवन समर्पित किया और जैन श्रमणत्व का स्वीकार किया ।
तत्त्व का यथावस्थित बोध होने के कारण जिनमार्ग के उपर उनकी श्रद्धा दृढ, स्थिर एवम् निर्मल हुई । श्रद्धा, शास्त्रबोध और करुणा के संयोजन से उन्होंने १४४४ प्रकरण की रचना की ।
श्रुतपरम्परा के अनुसार पू. आचार्यश्री हरिभद्रसूरिजी का समय वि. सं. ५८५ पूर्वका है । आधुनिक विद्वानो के अनुसार वि. सं. ७५७ से ८२७ तक का है । षड्दर्शनसमुच्चयः
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