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शुद्ध-बुद्ध-मुक्तस्वरूप हो, वही 'परमात्मा' पद वाच्य हो सकता है।'
लोकतत्त्व निर्णय नामक ग्रन्थ में चौदह सौ चवालीस ग्रन्थों के कर्ता याकिनीमहत्तरा धर्मसूनु श्रीमद् हरिभद्र सूरीश्वरजी महाराजश्री ने स्पष्ट रूप से प्रतिपादित किया है
"यस्य निखिलाश्च दोषाः, न सन्ति गुणाश्च विद्यन्ते । ब्रह्मा वा विष्णुर्वा, हरो जिनो वा नमस्तस्मै ॥"
अर्थ-जिस पात्मा में दोषसमूह का लेशमात्र भी नहीं है तथा समस्त गुणों का समवाय है। इस प्रकार गुणविशिष्ट चाहे ब्रह्मा, विष्णु, महेश तथा जिन कोई भी हों उन्हें मेरा नमस्कार है; क्योंकि वे ही परमात्मस्वरूप हैं।
दोष समवायों के रहते हुए परमात्मा रूप में स्थिति कदापि सम्भव नहीं है। इस रहस्य को विधिवत् जानना चाहिए। भला, क्रोध-मान-माया-लोभ कषायों से कलुषित आत्मा के रहते परमात्मा पद की सार्थकता कैसे हो सकती है ? वह परमात्मा तो वीतराग, समस्त दोष परित्यागी तथा प्रात्मस्वरूपवेत्ता है ।
जगत्कर्तृत्व-मीमांसा-१४