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सांख्य दर्शन के इतिहास को प्रधान तीन युगों में विभाजित किया जाता है । (क) मौलिक अर्थात् उपनिषद् भगवद् गीता, महाभारत और पुराणों का सांख्य दर्शन ईश्वरवादी था । (ख) महाभारत के बाद का सांख्य अनीश्वरवादी था क्योंकि तदुपरान्त सांख्यकारिका एवं बादरायण के 'प्रकृतिवाद' से प्रभावित सांख्य दर्शन का अवतार हुआ। (ग) ईसा की सोलहवीं शताब्दी का सांख्य दर्शन विज्ञानभिक्षु के अधिपतित्व में पुनः ईश्वर कर्तृत्ववाद से अनुप्राणित हो गया।
योगदर्शन को सेश्वर सांख्य भी कहते हैं। इस मत में ईश्वर को सृष्टि का कर्ता न मानकर एक पुरुषविशेष को ईश्वर माना गया है जो सदा क्लेश, कर्म, कर्मफलों और वासनाओं से अस्पृष्ट रहता है । वेदान्त के अनुसार जगत् का निमित्त और उपादान कारण ईश्वर है; जबकि न्याय वैशेषिकों के अनुसार सृष्टि में ईश्वर केवल निमित्त कारण है। इसके अलावा वेदान्त मत में अनुमान से ईश्वर की सिद्धि न मानकर जन्म, स्थिति, प्रलय तथा वेदशास्त्रों का कारण होने से ईश्वर की सिद्धि मानी गई है।
गार्बे (Garbe) आदि पाश्चात्य विद्वानों के अनुसार न्यायसूत्र और न्यायभाष्य में ईश्वरवाद का प्रतिपादन नहीं किया गया है। यहाँ ईश्वर को केवल द्रष्टा, ज्ञाता,