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भूमिका भारतीय मनीषा, तत्त्वार्थों के विमर्श के लिए, सत्य की खोज के लिए अनादि काल से तत्पर रही है। हमें गौरव की अनुभूति होती है कि तत्त्वचिन्तन से षड्दर्शन भारत-भूमि पर ही प्रगट हुए हैं । यद्यपि छह दर्शनों के चिन्तन में पर्याप्त भिन्नता है, अन्तविरोध हैं तथापि किसी न किसी तटस्थ दृष्टि से, स्याद्वाद दृष्टि से देखने पर समस्त-दर्शनों का चिन्तन कोटि-पूरक प्रतीत होता है । इनकी विभिन्नता के कारण भारतीय चिन्तन को एक नई दिशा प्राप्त होती रहती है तथा भविष्य में भी प्राप्त होती रहेगी। उक्त चिन्तन-पद्धति के विकसित सोपानों का प्राश्रयण करके जैनधर्मदिवाकर प्राचार्यप्रवर श्रीमद् विजय सुशील सूरीश्वरजी म. ने 'विश्वकर्तृत्व-मीमांसा' की महनीय रचना की है। हिन्दी भाषा में 'जगत्कर्तृत्वमीमांसा' भी सरल एवम् उत्कृष्ट रीति से प्रस्तुत की है। गुजराती भाषी होते हुए भी हिन्दी-वाङ्मय के विकास में प्रापश्री का सम्प्रति महनीय योगदान है।
भारतीय दर्शन में मोमांसा, सांख्य, जैन, बौद्ध, योग एवं चार्वाक ईश्वर को सृष्टिकर्ता स्वीकार नहीं करते । वेदान्त, न्याय, वैशेषिक दर्शनों में ईश्वर को जगत्कर्ता स्वीकार किया गया है।