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जीव दो प्रकार के हैं। जंगम जीवों की विचित्रता स्वयं उपार्जित शुभाशुभ कर्मों के उदय से ही होती है और स्थावर जीवों की भी यही स्थिति है ।
आगम प्रमाण (शाब्दप्रमाण) से भी ईश्वर की सिद्धि सम्भव नहीं, क्योंकि प्रश्न उठता है कि ईश्वर को सिद्ध करने वाला आगम ईश्वरकृत है या अन्यकृत ? यदि ईश्वरकृत है तो महान् क्षति होगी, क्योंकि महापुरुष स्वयं अपने गुणों की प्रशंसा नहीं करते। तथा ईश्वर का शास्त्रकर्तृत्व ही सिद्ध नहीं होता, क्योंकि-शास्त्र वर्णात्मक है। ये ताल्वादि क्रिया अभिघातजन्य हैं। शरीर के प्रभाव के कारण ईश्वर में इसकी कल्पना ही नहीं की जा सकती। शरीर मानने पर पूर्ववत् दोष परम्परा रहेगी। यह आगम (वैदिक शास्त्र) का प्रणेता असर्वज्ञ है तो उसके वचनों पर दृढ़ता से कौन विश्वास करेगा । अतः सर्वप्रपञ्च परित्याग कर 'ईश्वर' में विश्वकर्तृत्व की प्रतिष्ठा का हठवाद छोड़ दीजिए। आप ईश्वर को सर्वज्ञरूप में स्वीकार करें, किन्तु उक्त दोषों को ध्यान में रखते हुए शुद्ध, बुद्ध, सर्वज्ञ ईश्वर के स्वरूप को विश्व-जगत् कर्तृत्व प्रसंग से जोड़ने के चक्कर में उसे कलुषित बनाने की व्यर्थ चेष्टा न करें। यह मेरा विनम्र अनुरोध है ।
विश्वकर्तृत्व-मीमांसा-५२